सोमवार, 27 अप्रैल 2009

एक जूता ऎसा भी

" जूतयाई दिया ,जूतम पैजार ,जूतम मार, बिना जूते खाऎ अक्ल नहीं आयेगी,मियाँकि जूती मियाँ के सर" ये ऎसे शब्द समूह है जो वर्षो से मनुष्य वास्तविक प्रयोग तथा भाषागत हिंसा के लिये काम मे लेता रहा है।पिछले दिनो इराक के एक पत्रकार "मुन्तज़र ज़ेदी "ने तत्कालिन अमेरिकन राष्ट्रपति "बुश" पर जूता फ़ेका ।वह जूता विरोध दर्शाने के तरीके मे सब से ऊपर जा बैठा।
विरोध दर्शाने के सभ्य तरीके पुराने हो गये।सविनय अवग्या,सत्याग्रह ,विरोध मे मानव श्रंखला बनना , काला फ़िता लगाना ,हाय हाय के नारे लगाना ,अन्शन,धरना सब पुराने हुए ।सीधा ध्यान आकर्षीत करने वाले तरीको मे आ गया सबसे ऊपर"जूता फ़ेकना"। जूतो के दिन फ़िरे ,पैरो से उछल कर ,किसी सम्मानिय व्यक्ति के सिर पर ।इराकी पत्रकार को तो सजा हुई।मगर हमारे यहाँ पर चुनाव के समय पी.चिदम्बरम पर जूता उछाला गया तो आड़े आये चुनाव ,पार्टी कि छवी तथा वोट बैंकँ सभी । मुस्करा कर माफ़ करने के अलवा कोई विकल्प न था , बल्की बाध्यता थी।
लोकप्रियता की चाहत किसे नही ।जिन पर उछाला गया जूता ,उन्होने लोकप्रियता के लिए माफ़ किया ।अब जूता फ़ैकने् वालो ने आल इन्डीया फ़ेम के लिए ,जेसे काँच कि गोलियो से निशाना साधने के लिये एक दूसरे को टकराते है,वैसे हि दोनो जूतो ,चप्पलो को टकरा कर निशाना साध कर ,उल्ला जमा कर दिया, उछाल कर ।टी वी केमरे ,पत्रकार ,फ़ोटोग्राफ़र लगे सब "जूता साधक "को कवर करने। अगले दिन सुर्खीयो मे खबर।
चुनाव के मौसम मे - नेता ,पार्टी सब जूता फ़ेकने वाले के लिये दरियादिली दिख लाते और माफ़ करते चलते।"फ़ेकने वाले हिम्मत जूटाने" के लिए सुरापान करते और दें फ़ेक कर।बोल "सुरा मरद की जै"।
क्या यह सामाजिक बदलाव है। या नेताओ के अभिनेताओ के दिन भरने का संकेत या चेतावनी है की अब भी सम्भल जाओ ,वर्ना सचमुच जनता जूते मारेगी ।यह भी हो सकताहै की आने वाले समय मे"’अंतर्राष्ट्रीय जूता फ़ेको दिवस "भी मनाया जाए।
क्या नेता इसके दोषी नही ?मर्यादा तोड़ने पर सजा तो होना लाजमी है।क्या यह वोटो कि राजनिती नहीं हुई?या जो भी हो ;मगर आगे आने वाले समय के लिये जूता मारने वाली नई पोध को सिन्चीत किया ।परिणाम पी.एम .तक कि सभा तक मे जूता ।
युही चलता रहेगा जूता पुराण ;मगर एक किस्सा यह भी "एक बार ईश्वर चंद विद्यासागर " कोईनाटक देख रहे थे ।नाटक के द्रष्य मे खलनायक महिला पात्र को प्रताड़ीत कर रहा था , नाटक के तारत्व मे डुबे विद्यासागर जी को बहुत क्रोध आया, मुठ्ठीयाँ भीच गई ।अगले पल निकाला जूता ,दिया खलनायक पर फ़ैक ।खलनायक काचरित्र निबाहने वाले ने उस जूते को अपना पुरस्कार समझ कर सिर से लगाया । और कहा मेरे अभिनय मे असर है तभी तो"विद्यासागर जी " यह जानते हुए भी की यह नाटक है , फ़िर भी मेरे चरित्र से नफ़रत कीऔर यह जूता फ़ेका ।यह मेरे अभिनय का पुरस्कार है ।"सच वह जूता उसका पुरस्कार था"।

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

यह पहल हो....!

अभी तक निपटे निर्वाचन के दो चरणो मे मतदान काप्रतिशत काफ़ी कम रहा।विचारणीय प्रश्न, यह है ;की आज के समय मे जब आम आदमी संचार क्रांती के माध्यम से शीघ्र सभी मुद्दो से ,घटनाओ से, प्रक्रियाओ से अवगत होता है।सुदूर गाँव मे भी सभी माध्यमो से लोग छोटी से छोटी घट्नाओ को जान लेते है।शहरो की तो बात ही क्या है ।
मगर आज भी मतदान का प्रतिशत कम होना इस बात का परिचायक है की आज भी समाज मे जाग्रती नहीं आयी ।सन १८५७ मे लोगो ने क्रांती के प्रसार हेतु रोटी ,कमल जैसे प्रतीक माध्यमो का सहारा लिया। आज के समय मे टीवी,रेडिओ ,मोबाईल फ़ोन ,एस. एम.एस.,इन्टरनेट इतने उन्नत माद्यमो के बावजूद जाग्रती कि लहर दिखाई नहीं देती।
एक अभीयान पल्स पोलीयो जिस मे हर बच्चे को दवा पिलाना जब ध्येय बनाता है; तो हर माद्यम से लोगो को जाग्रत किया जाता है ।रेल्वे स्टेशन ,बस स्टेंड हर जगह जा कर दवाई पिलाई जाती है। शत प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त कीया जाता है।
तो क्या हमारे समाज कि कमजोरी ,"मतदान नहीं करना है"। इस बिमारी ,इस कमजोरी के इराडिगेशन के लिये कोई सशक्त अभीयान नहीं चलाया जा सकता। जो विग्यापन इत्यादी चलाए जाते है वे पर्याप्त नहिं है ।चुनाव के पूर्व सरकार ,समाजिक संस्थाऎ तथा पूरेचौथा स्तंभ को पुरजोर तरीके से "सभी मतदान करे" ऎसा अभियान चलाया जानाचाहिये । मतदान नहीं करना एक बिमारी है ।क्यो नही किया जाता इस बिमारी का उपचार ? नतिजन कमजोर सरकार और स्पष्ट जनाधार नहीं पाए लोग सत्ता पक्ष में बैठ ,अपनी मनमानी करते है।
संचार के सभी माध्यमो से यह बात समाज के प्रत्येक आदमी तक क्यो नहीं पहूँचती की,स्थानीय मुद्दो के लिये केन्द्र मे बनने वाली सरकार के मतदान की उपेक्षा करना,बहिष्कार करना गलत है ।बल्की समाचार पत्र इन खबरो को प्रमुखता से छापते है की ,फ़लाने वार्ड के लोगो ने ,फ़लाने मुहल्ले के लोगो ने,फ़लाने गाँव केलोगो ने सड़क ,बीजली , पानी के मुद्दो पर मतदान का बहिष्कार करने क ऎलान किया, क्या यह ठीक है ?
मिडीया ,सरकारी ,सामाजिक संस्थाओ ,कार्पोरेट ,फ़िल्मी कलाकार, खिलाड़ीयो सभी को आमजन को शत प्रतिशत मतदान हेतु प्रेरित करना होगा।जब चलित विद्यालय ,चलित ए.टी .एम. ,चलित पोलियो दवा के बूथ ,चलित दवाखाने हो सकते है, तो चलित चुनाव केन्द्र क्यो नहीं? चुनाव प्रक्रिया कई चरणो मे होती है; तो मतदान दो या तीन दिनो तक क्यो नहीं?
हर मतदाता के मत कि कीमत है ; समझना ,समझाना होगा ।निर्वाचन प्रक्रिया मे बदलाव कर; हर वोट को संग्रहीत करना होगा।समग्र जन जाग्रती होगी, उसी दिन यह सही मानो मे निर्वाचन होगा ।
एक नयाबदलाव हो । काश यह पहल हो ।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

एक पत्र प्यारा सा

दोस्तो अपनी कही ,आपकी सुनी तो अनवरत चलती रहेगी।मगर आज जो मे कहना चाहता हूँ वह एक ऎसा पत्र है ,जिसकी भावना मन को छू लेगी,और आप भी अपने बच्चे के शिक्षक से यही सब बाते कहना चाहेगें। यह पत्र अब्राहमलिंकन ने अपने बेटे के शिक्षक को लिखा था ।एक मित्र से हिन्दी अनुवाद प्राप्त हुआ था । आप भी पढ़े,आपको भी पसन्द आएगा।
अब्राहम लिंकन का पत्र उनके बेटे के शिक्षक के नाम.
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श्रध्देय, गुरूजी
उसे सिखाएं
सभी लोग न्याय प्रिय नहीं होते
नहीं होते सभी सत्यनिष्ठ
मगर,
संसार मे दुष्ट होते है
तो आदर्श नायक भी;
होते हैं घाघ दुश्मन,
तो संरक्षण देने वाले दोस्त भी ।
मैं जानता हूँ-
सारी बातें झट्पट सिखाई नहीं जातीं,
फ़िर भी हो सके तो उसके मन पर अकिंत करें
पसीना बहाकर कमाया गयाएक पैसा भी,
भ्रष्टाचार से मिली संपत्ति से मूल्यवान होता हैं।
पराजय कैसे स्वीकार कीजाए
यह उसे सिखाएं,
और सिखाएं विजय संयम से ग्रहण करना।
आप मे शक्ति हो तो
सिखाएं उसे ईर्ष्या-द्वेष से दूर रहना
और कहे गुण्डोसे मत डर,
उन्हें झुकाना ही पुरूषार्थ है।
आप करा सकें तो उसे,
पुस्तकों के आश्चर्य लोक की सैर अवश्य कराएं.
किन्तु इतना समय भी दें कि वह देखे-
पक्षियों की आसमान तक उड़ान,
सुनहरी धूप में उड़ने वाले भ्रमर,
और हरी-भरी पहाड़ीयो के ढ़ालों पर
डोलने वाले छोटे -छोटे फ़ूल।
विध्यालय में उसे मिलनेदें-
यह सबक -
धोखे से प्राप्त सफ़लता की अपेक्षा
सत्कार्य में प्राप्त असफ़लता भी श्रेयस्कर है।
अपनी संकल्पना , अपने सुविचार,
इन पर उसका दृढ़ विश्वास रहे ।
सत्य के पथ पर भले ही दुनियाँ उसे गलत कहे;
फ़िर भी उसे बताएं
वह भले लोगों के साथ भला रहे और दुष्टो को मज़ा चखाए.
मेरे बेटे को ऎसा मनोबल देना
कि वह भीड़ का अनुसरण न करें ,
किन्तु जब भी सब एक स्वर में गाते हो ;
वह उन्हें धैर्य से सुने ,और उसे यह भी बताएं-- सुने सबकी,
पर छान ले उसे सत्य की छलनी से
और छिलके फ़ेंककर केवल सत्य ही स्वीकार करे।
उसके मन पर मुद्रांकित करें-
हँसता रहे ह्रदय का दुख दबाकर,
पर कहें उसे--
परपीड़ा पर आँसू बहाने में, लज्जित न हो ।
आँसूओं मे शर्म की कोई बात नहीं ;
उसे सिखाएँ- तुच्छ लोगो को तुच्छ माने
और चाटुकारों से सावधान रहे ।
उसे यह अच्छी तरह से समझाएं कि;
करे वह भरपूर कमाई,
ताकत और अकल लगा कर .
परन्तु कभी न बेचे ह्रदय और आत्मा को ।
धिक्कार करने आए तो,
उपेक्षा करना उसे सिखाए ; और मुद्रित करें उसके मन पर ,
जो सत्य और न्याय पूर्ण लगता हो,
मुकाबला करे असत्य का डट कर ।
ममता से पालन कीजिएं पर ,लाड़ मे न बि्गाड़े उसे;
बिना आग में तपे-झुलसे, लोहा फ़ौलाद नहीं बनता ।
उसे सिखाएँ--
देश हित में अधीर ,बैचेन होने का धैर्य,
और रह सके वह निश्चल यदी फ़हराना हो शौर्य पताका ।
और भी एक बात बताते रहें उसे,
हमारा दॄढ़ विश्वास हो स्वयं पर ,
तभी हो सकेगी, उद्दात्त श्रध्दा मानव जाति पर ।
क्षमा करें गुरूजी;
मैं बहुत कुछ लिख गया हूँ,
काफ़ी कुछ माँग रहा हूँ,
पर देखें हो सके तो उतना करें,
मेरा बेटा बहुत ही प्यारा ,
होनहार है वह..।
शायद ,आपने पहले भी पढ़ा हो,यह आशा है कि फ़िर पढ़ना भी अच्छा हि लगेगा ।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

ए शमा तेरी उम्र इक रात तय आई है,

युं तो जीने के लिये लोग जिया करते है:
लाभ जीवन का नहिं फ़िर भी लिया करते है;
मृत्यु से पहले भी मरते है हजारो लेकिन-
जिन्दगी उनकी है जो मर मर के जिया करते है,
मित्रो, जिन्दगी एक ऎसा शब्द ,जिसमे बन्धे है हम सभी।अमुमन सभी को कई बार एसा मह्सूस होता कि हम क्यो जिये जारहे है।एक रुटिन है; उसी मे बन्धे चलते चले जारहे है।जो पाने कि चाहत है उसे पाया फ़िर भुल गये।जो चाहा नहि पाया,मायुस हुए।फ़िर भी सफ़र जारी है; मुकाम मौत है।इस सफ़र के कई अच्छे ,बुरे पडाव है।अच्छी यादे सुहानी लगती है।ऎसे पल जो आये जिन्दगी मे जो परेशानी ,खीज,दर्द ,तकलीफ़ ले कर आये । उन पलो कि यादे ही हमे आज भी बैचेन कर देती है।ये बैचेनी हि तो मर मर कर जीना है। इन सब से गुजर कर कुछ लोग अपने ऊपर एक आवरण चढा लेते है; संजीदगी का। बकौल किसी शायर के ;
आज तक क्या हमारा हुआ;
दर्द मे ही गुजारा हुआ:
टुट्ते हि गए आसरे’
आँसुओ का ही सहारा हुआ।
साथ हि एक गाने कि एक लाइन;"उन आँखो क हँसना हि क्या,जिन आँखो मे पानी ना हो"। सुख दुख,धुप छाँह सब अन्योन्याश्रीत है। जहाँ तक मैनें देखा है जिन्दगी को, कितनी भी विशाक्त घडी हो ;बडी बैशर्मी से मुस्कुरा देती है जिन्दगी। तो फ़िर दोस्तो
आज से हि संजीदगी छोड दि जाये; और उस तरह जीया जाये ,जैसे जीया वह चिनी फ़किर ।कहानी सुनी है हम ने-वह जब तक जीया लोगो को हँसाता रहा। मृत्यु का समय आया तौ उसने मजाक किया ।अपने शरिर से फ़टाके बाँध लिये ।लोगो से कहा मुझे एसे हि जला देना।गाँव के लोग बडे संजीदा ,गम मे डुबे चिता को आग लगाई ;
धुम धडाम होने लगी।मातम मनाते लोग हँसने लगे ठ्हाके लगाने लगे।उसने मर कर
भी लोगो को हँसाया।हमे भी अपनानी होगी यह शैली,अपने ओर आस पास खुशनुमा माहोल के लीये।खुशनुमा बच्चा अपने आस पास खुशी,हँसी बिखेरता है ।सब को प्रसन्न
कर देता है।कहने का अन्दाज एक यह भी;
"ए शमा तेरी उम्र इक रात तय आयी है,
चाहे तो हँस के गुज़ार,चाहेतो रो के गुज़ार दे."

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

पहला पहला ब्लाग है,

क्या लिखु क्या लिखु इसी उहापोह मे लगा था मैं। यह मेरा पहला पहला ब्लाग है,और इसके विषय मे सोच सोच कर हारा। जब समझ सका तो अचानक हि कुछ टाईप करने लगा। विचार यहि था कि मेरे पहले पहले ब्लाग का इम्प्रेशन भी कुछ वेसा हि हो जैसा पहली बारिश कि बुन्दो से भिगने पर धरती कि सोन्धि सोन्धि महक का मन पर।जैसे प्रेयसी का पहला स्पर्श।जैसे....अरे...रे...मैं तो उपमाओ पर उतर आया।खैर....उपमा कि क्या बात है। एक लड्की को देखा तो........जावेद सहाब ने उपमाओ से एक हिट गाना बना दिया। अभी चुनावी मोसम मे उपमओ का अलग निखार है, जैसे कमजोर ताकतवर बुडीया गुडीया खैर वेसे मेरी पत्नि मेरे लिये गरम गरम उपमा बना रही है।गर्मी का मोसम है,हल्का खाना है।एक प्लेट उपमा के बाद उपमाओ पर सोचेगें।
खैर उपमओ कि बात चल रही है तो मुझे निरज सहाब कि कविता कि कुछ पगंतियां याद आगयी ,अर्ज है
"जब चले जाएगे हम ,लोट के सावन कि तरह,
याद आयेगे प्रथम प्यार के चुम्बन कि तरह,"
हां सहाब हर कोइ अपना पहला इम्प्रेशन अच्छा हि डालना चाहता है। तभी तो कहा जाता है "फ़स्र्ट इम्प्रेशन इज़ लास्ट इम्प्रेशन"
नई गाडी नई लाडी नई साडी नया घर नया टीवि नई बीबी नया अखबार नई कार नया चेनल नया पैनल नया मुहल्ला नया शहर नई खबर.......जी ये सब इम्प्रेसिव होते है जनाब।
मैं भी कोशीश मे लगा हूं कि एक इम्प्रेसिव ब्लाग लिखु और एक अच्छी जगह पाऊं।
मगर यह हो ना सका.....और अब ये आलम है,के तू नहि तेर गम तेरी जुस्त्जू भी नही।अरे.....रे मुझे तो साहीर लुधियानवी सहाब कि ’"कभी कभी " याद गई।आप भी समाद फ़रमाऎ........