शुक्रवार, 29 मई 2009

खत लिख दे.............

सूचना क्रांती के इस दौर में पत्र लेखन का महत्व कम से कम होगया है ।एक समय था जब पत्र बहुत ही महत्व पूर्ण था । व्यवसायीक पत्र तो उस समय में भी लिखे जाते थे,आज भी लिखे जाते है। मगर पारि्वारीक पत्र मित्रो ,परिचितो को पत्र प्रेयसी को प्रेम पत्र ये सब लोग भूल गये और भूलते जा रहे है।वर्तमान समय में फ़ोन, मोबाइल फ़ोन ,ई-मेल ,एस.एम.एस .ये सब मुख्य माध्यम बनगये है।
पत्र लेखन एक बहुत ही रचनात्मक काम होता था । व्यक्ती स्वयं अपनी एक शैली विकसीत करता था। प्रिय , आदरणिय ,पूज्य,अत्र कुशल तत्रास्तु , हम कुशल से आपकी कुशलता की कामनासे चलकर आपका अपना ,तुम्हारा ,आपका आग्याकारी तक सब कुछ मधुर मधुर लगता था ।अब इन शब्दो का स्थान ले लिया है -हेलो ,हाई और बाईबाई ने ;और कीपेड पर चलता अँगुठा ,इसी में पूरा हुआ सब कुछ।
पत्र लेखन सिर्फ़ समाचार पहुँचाने का माध्यम ही नहीं था ,अपितु इसका साहित्यीक महत्व भी होता था । पं.नेहरू जी ने पत्रो केमाध्यम से अपनी बेटी को जो कुछ लिखा वह डिस्कवरी आफ़ इंडिया के रूप मे सब के सामने है।ऎसे कई महापुरुषो के पत्र आज साहित्य की धरोहर है।
खतो किताबत का एक अलग ही आनंद होता था ।स्वीकरोक्ती का अच्छा माध्यम होता था पत्र लेखन ।गांधी जी ने बचपन में जो गलत किया , सीधे बताने का साहस न हुआ तो पिता को पत्र लिख कर सब कह दिया ।एक अच्छी विधा "पत्र लेखन " पर अब बिजनेस लेटर के रुप मे ही जीवित है ।
पहले मुहल्ले में जिस के घर ज्यादा पत्र और डाक आती थी ,वह व्यक्ती उतना सम्मान की द्रष्टि देखा जाता था । पत्र पत्रीकाओ में एक कालम होता था पत्र मित्र का । तस्वीर के साथ पता छपा होता था पत्र मित्रता के लिये ।लोग अनजान लोगो को मित्र बना लेते थे, पत्र लिख कर।
उस दौर के फ़िल्मी गानो में भी पत्रो का जीक्र होता था ।"खत लिखदे सावरियाँ के नाम बाबु ", "हम ने सनम को खत लिखा ", "फ़ूल तुम्हे भेजा है खत में" , "लिखे जो खत तुझे"ऎसे सेकड़ो गानो ने
पत्रो के गौरव को बढा़या है । डाकिया भी महत्व पुर्ण होता था ,उसका इन्तजार हर कोई करता था।"डाकिया डाक लाया , डाकिया डाक लाया । खुशी का पैगाम कहीं कहीं दर्द नाम लाया "उक्त गाना सचमुच चरितार्थ होता था । निदा फ़ज़ली साहब का एक शेर है - डाकिया बड़ा जादुगर , करता बहुत कमाल;
एक ही झोले में भरे, आँसू और मुस्कान,
इतने सुन्दर शेरो ,और काव्य रचना का आधार पत्र ही तो है। मगर अफ़सोस डाक खानो का काम कम कर रहे फ़ोन मोबाईल ने पत्र लेखन को हाशिए पर ढकेल दिया ।
पत्र ,पत्रिकाओ, समाचार पत्रो को भेजे जाने वाले पत्रो मेंभी कमी आयी है । आईपाड और एफ़ .एम. के ज़माने में , फ़रमाइशी पत्रो के माधयम से जाने ,जाने वाले झुमरीतलैया को लोग भूल रहे है।
वो प्रेमी ,प्रेमीका का छुप छुप कर पत्र लिखना , भेजना और पढ़ना सोचिये कितना रोमान्टीक होता था ।इस माध्य्म के चलते प्रेमी प्रेमीका ,पूरी तरह से मेच्योर हो जाते थे ;परिणीती विवाह तक ।
कक्षा तीन से छुट्टी के प्रार्थनापत्र से चल कर प्रेम पत्र तक का सफ़र बहुत ही सुहाना होता था । "कबूतर जा जा ,पहले प्यार की पहली चिठ्ठी " आदिम युग की बात है अब सीधा पूछा जाता है "व्हाट इस योर मोबाईल नम्बर " यही तो जेट एज है ।
गालिब ने कहा-
क़ासिद के आते-आते इक खत और लिख रखूं
में जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में.
शायद ,ये शेर अब सामयिक नहीं ।मगर शेर अच्छा लगता है। खुदा करे खतो-ओ-किताबत चलती रहे ,फ़ोन, मोबाइल फ़ोन ,ई-मेल ,एस.एम.एस . के इस दौर में ।ताकी अगली पीढ़ी भी जान सके पत्र लेखन की विधा को ।

बुधवार, 20 मई 2009

सब चलता है..........

हम भारतीय लोग ,हमारी अपनी कुछ विशिष्टताऎ है।राजनीति पर चर्चाऎ तो खुब करते है ,मगर वोट नहीं देते है । हम स्थानीय प्रशासन को खुब कोसते है ,व्यवस्था नाम की चीज़ नहींहै ,ऎसाहै वैसा है। गाँव ,नगर ,शहर में सभी कचरे की ,गन्दगी की दुहाई देते मगर हम खुद अव्यवस्था फ़ैलाते है ।अपने घर की सफ़ाई कर कुड़ा कचरा सीधा बाहर सड़क पर । "कोई बात नहीं मेरा घर तो साफ़ है"। नगरपालिका की खाली कचरापेटी गवाह बनती है इन सब की।सार्वजनिक स्थानो पर डस्टबीन्स का प्रयोग हमारी शान के खिलाफ़ है।
सिंगापुर , जापान की बाते की जाती है,वँहा सड़के काँच जैसी साफ़ सुथरी है ।ये तमाम बाते किजाती है इसी दरमीयान बातो के बीच मुँह का जर्दा पान सड़क पर ,दीवार पर किसी भी कोने पर आक थू। बना दिया सिंगापुर जापान इन्डिया सब का नक्शा एक बार में । कोई बीच में टोंके तो जवाब होगा सब चलता है यार। एक मुस्कान और बात ख्त्म।
कुत्ते और दुसरे जानवर पालेगें ,सड़को के किनारे गन्दगी करवाएगे ।फ़िर शहर की नगरपालिका को कोसेगें। देश ,देश की व्यवस्था यह सब हमारे आलोचना का विषय होगें। अपनी गाड़ी से जा रहे है , ट्रेफ़िक पुलिस ने रोका चेक किया ,कागज नहींहै ,हेलमेट नहींहै ,सीट बेल्ट नही लगाया , तीन सवारी जो भी अवैधानीक हो ;पुलीस के कर्मचारी को ऊपर की पँहुच का वास्ता देते है।कुछ ले दे के मामला निपटाने का प्रयास करते है।फिर वही बाते हमारे देश मे करप्शन कितना बड़ा हुआ है ।खुद गाड़ी कभी ठीक से नही चलाएगे मगर हम इंडियन में ट्रेफ़िक सेन्स नहीं है ।यह कहने से बाज़ नही आयेगें।
किसी सरकारी काम के लिये किसी दफ़्तर मे गये :मालुम चला की उस काम के पूरे प्रोसिजर मे दो माह का वक्त लगेगा ।तब संबन्धीत कर्मचारी अधिकारी को कुछ भेट इत्यादी से मनाने का प्रयास ,येन केन प्रकारेण अपना काम निकालना । बाहर फ़िर वही बातें देश में भ्रष्टाचार खुब बड़ गया है।बहुत खराब हालत है देश की ।
विदेशो की कहते है,वहाँ आदमी खुद कार्ड पंच कर पार्किगं टीकिट लेता सब कुछ व्यवस्थीत स्वत: ।हमारे यहाँ गाड़ी कही भी लगा दी क्रेन ने गाड़ी उठा ली । लगे सारी व्यवस्था को कोसने । खुद नही देखते की गाड़ी ठीक जगह और ठीक तरीके से पार्क नहीं की है ।
ट्रेन्स लेट ,डिब्बे साफ़ नही ,पानी नही मौखीक जमाखर्च होता रहेगा ।स्टेशन मास्टर या संबन्धीत अधिकारी तक शिकायत कोई नही पहुँचाता । रेल्वे और देश दोनो को कोसते रहेगें ।हर जगह देश में शिकायत एवं सुझाव का प्रावधान है , मगर हमे क्या ।
गाड़ी में पेट्रोल डलाते समय नाप और क्वालिटी का रोना रोऎगें वहाँ मोजूद कम्पनी प्रद्त्त जाँच और नाप सुविधा को नजर अन्दाज करे देते है ।
कोई अपराधी छवी वाला उम्मीदवार मैदान मे हो तो ,जनता उसे चुनके संसद ,विधानसभा ,न.पा. ,पंचायत कही भी बिठादेगी ।फ़िर वही चर्चा राजनिती गुंडो का काम है बहु बलीयो के बस की बात है।
देश मे फ़ेले अधंविश्वासो ,पिछड़े पन की बाते खुब सारी , साथ ही दरवाजे पर दुकानो पर निम्बु मिर्चि लटकाना हमारा प्रिय शगल है ।
किसी छोटे ने चालान जुर्माना इत्यादी भरा हो तो बड़े बुढ़े यह कहते नज़र आयेगें "तुम में जरा भी होशीयारी नहीं है , कुछ ले दे के बात खत्म करनी थी।कम मे काम होजाता ।ये चीजे कब सिखोगें"?
ऎतीहासिक इमारतो पर कोयले और पत्थरो से खुदे लैला मज़नूओके शिलालेख यह बताते की,हममे कितने अवेयर है ।ये इमारते खुद चिल्ला चिल्ला कर अपनी कहानी कहती है।
खुदा न खास्ता अगर किसी कोर्ट में मामला चल रहा हो तो अपने हिसाब से तारिखे बढवाने को कुछ नोट बढा कर ,तारीख बढ़वा ली।फ़िर भ्रष्टाचार का वही गीत गाते ।
जी हम स्कूल मे नैतिक शिक्षा पढ़ा सकते है ,अमल मे लाना व्यर्थ है। हर वर्ज़ना और वर्ज़ित को करना हमारा धर्म होता है । आज़ादी के बासठ साल के बाद भी हम व्यवस्थाओ मे कोई विशेष बद्लाव नहीं पाते है।साथ ही देश समाज ,व्यवस्था को कोसना ही हमारा धर्म , दायीत्व एवं प्रिय शगल है । कब तक हम अपनी लापरवाहीयो ,गलतीयो को सरकार ,प्रशासन ,नगर पालिकाओ पर थोपते रहेगें ।" सब चलता है " इस जुमले पर कब तक अमल करेगें ?आखिर कब तक?

बुधवार, 13 मई 2009

विमाता भी एक रुप है...........

ईश्वर की सर्वोत्तम कॄती माँ पर , मदर‘स डे के उपलक्ष्य में हजारो अभीव्यक्तियाँ लिखी गई ,पढ़ी गई ।जहाँ सुख है वहाँ दुख भी है।हर सिक्के के दो पहलू होते है ।जहाँ माँ है ,वही जिन की माँ इस दुनियाँ नहीं है, उन पर विमाता का साया है ।आपका ध्यान चाहूगाँ इस शब्द विशेष "विमाता " पर ।"विमाता " एक ऎसा शब्द जो धधकता रहता है,खुद अपनी आग तथा सौतेले बच्चो से डाह की आग में ।जहाँ माँ ईश्वरीय फ़रिश्ता है ; वहीं विमाता दण्डीत करने का माध्यम है विधी का। शायद पूर्व जन्म के बुरे कर्मो के दण्ड स्वरूप नियती से प्राप्त होती है विमाता । जैसे शब्द वितॄष्णा,विकॄती,विरक्ती,वैमनस्य ऎसे शब्दो के क्रम में खुद अपनी कहानी कहता शब्द है "विमाता " । जब हम बात करे विमाता की तो हमें समझना होगा शब्द वि + माता =विमाता ;विरक्त माँ उन बच्चो से जो उसके नही,उनमे विमाता की आसक्ती नहीं।सौतेली माँ ,दूसरी माँ ऎसे कैई शब्द प्रचलन में है विमाता के लिये । एक बात पर ध्यान दिलाना चहूँगा इस तरह के शब्दो में माँ जुड़ा होता है; जो शायद एक तरह से " माँ " का अपमान होता है ।"माँ " मधुर अनुभूति है तो विमाता प्रताड़ना है निश्चय ही। आप सभी सहमत नहीं होगें मेरी इस बात पर । कहा जाता है "जाके पैर न फ़टी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई "।जिन अभागो की "माँ " बचपन मे गुज़र जाती है वै ढ़ोते इस शब्द को अपनी आत्मा पर ।
सत युग में श्रीराम ने विमाता कैकेयी के कारण प्रताड़ना सही दण्ड्कारण्य में रह कर । ध्रुव ढ़केला गया पिता कि गोद से । धीवर पुत्री ने विमाता बनने से पुर्व देवव्रत को भीषण प्रतिग्या कराली वे इस तरह भीष्मपितामह हुए । सत युग से कलयुग तक यही कहानी दोहराई गई और दोहराती जाती रहेगी। फ़िल्म सरगम का वह द्रष्य सभी को याद होगा । गुँगी नायीका ,जो नॄत्य कर रही है;के पैरो पर जलती लकड़ी से मारती पैर जला देती है ,अंगारे बिछा देती है;यह माँ सौतेली है।अमर प्रेम फ़िल्म के छोटे बालक पर ज्यादतीयाँ करती ,अत्याचार करने वाली माँ , दूसरी माँ है।
जो स्त्री कोमलता ,कोमल भावनाओ का परिचायक होती है;वह इतनी क्रुर,क्रुरतम क्यो होजाती है।शायद काम्पलेक्स है;वह जो लड़की जो कुवाँरी है ,एक विवाहीत पुरुष जो एक दो सन्तती उत्पन्न कर चुका है ; के साथ जीवन को शेयर करना होता है । तथा पिछली पत्नि की बनी बनायी छवी को छीन्न भीन्न करना होता है।यही सब मनोविग्यान काम करता है ,दूसरी सोतेली माँ मे ।शादी के तोहफ़े के रूप में प्राप्त बच्चे ,विमाता को इसलीये भी नही भाते,क्योकी उसने उन बच्चो कि प्रसव पिड़ा को नहीं भोगा है । दर्द की सहभागीता नहीं तो कोई साहनूभुति नहीं। या शायद मरी सौत के डाह से तपते कलेजे पर सौतेले बच्चो के ममत्व की बुँद पड़ने से जैसे ;तड़कता है ठंडा प्याला ,वैसे ही चटक जाती है मामता ...खो जाता है ममत्व । प्राकट्य होता है विमाता का ।और उनके स्वयं माँ बनने के बाद अत्याचारो और प्रताड़नाओ के इपिसोड्स और बड़ते जाते है । शायद यह प्रकॄती भी है।जैसे प्रकॄती मे नर पशु , नरपशु को मारडालता है,वैसा ही कोई भय सताता है नीज सन्तती के लिये विमाता के मन में।साथ ही उसे अपने नीज बच्चो के पारिवारीक संपत्ती पर हक को ले कर भय होता है ,शंकाए होती है।तभी विमाताए वेम्प बन प्रथम पत्नि की संतत्ती को प्रताडित करने के तरीके ढ़ुडंती रहती है ।
वह पुरुष जिसने ब्याह किया है दुसरी बार , अपनी नई पत्नि के आगे मयूर नॄत्य के इलावा कुछ करने की चाह नहीं रखता ।उसकी दूसरी पत्नि का सच ही उसका सच होता है ।काम काफ़न्दा उसके भी गले है ।उसे पिछली नही आगे की सोचनी है।वह सोप चुका होता है अपना् मन मस्तीष्क पुर्ण रुपॆण अपनी नई पत्नि को ।शायद ही एसे लोग कभी इस तन्द्रा से जागे ।
अखबारो मे छपते रहे है छपते रहेगें ये किस्से -संपत्ती के लिये विमाता ने हत्या करवाई। लड़की को कोठे पर बेंचा । साथ ही घर के सारे काम करवाना ,भुखा रख्नना, मारना पिटना,जली कटी सुनाना ,जलाना,रस्सी से बांधना ऎसी बाते प्राय: पढ़ने सुअनने को आती है ।क्या यह मन गड़न्त होती है ?ना जहाँ धुआँ वहाँ ......आग! साहित्य भी प्रमाण है।
यह सच है की ,प्रसव मे ,दुर्घटनाओ मे ,कलह की परिणीती आत्महत्याओ मे विवाहित महिलाओ की मॄत्यु की एक दर सहज ही निश्चित है और उसी दर के आधार पर विमाताओ का एक बड़ाप्रतीशत भी ।
घरेलू आतंअकवाद का पर्याय ये विमाताए मातॄ विहीन बच्चो के,हक ,व्यक्तित्व ,खूबीयो,अच्छाईयो का हरण मर्दन कर उन्हे बोन्साई बनाने से बाज नहीं आती। इसके बाद भी तनाशाही हिटलरशाही के बल पर भुगतभोगी पिड़ीत बच्चो के मन पर निरंतर दरारे डालने ,चोट पहुचाने का क्रम जारी रहता है।
यहाँ मैं एक बात और बतलाना चाहूगाँ।विमाता का लेवल लगी कोई माँ सचमुच उन बच्चो से प्यार करती है;जो उसके नहीं है; तो हमारे समाज ,विधी ,ईश्वर के द्वारा लगाए गये ठप्पे से कई बार सच मे उसका ममत्व दब जाता है विमाता शब्द मे। शायद यह सबसे बड़ी विड्म्बना है विमाता शब्द की ।
जहाँ बहुत छोटे बच्चे होते है ,माता ,विमाता का भेद नहीं समझ पातेहै; मगर जो समझते हैऔर समझचुके है ,उनके लिये विमाता सात जन्मो तक भी " माँ " नहीं हो सकती ।यही शाश्वत सत्य है।

शनिवार, 9 मई 2009

"माँ"-हर दिन तेरा........

" माँ " यह एक सिर्फ़ शब्द नहीं। "माँ" स्पदंन है ह्रदय का । माँ की धड़कन ,बच्चे की धड़कन नौ माह तक एक ही होती है । जब जनमता है शिशु , विलग किया जाता है दोनो को । नाल काट दी जाती है, मगर फ़िर भी जीवन पर्यन्त वह जुड़ाव होता जो कभी अलग नहीं किया जासकता है ।
जब भी "माँ" शब्द उच्चारीत होता है , शब्द के अनुस्वार से साँसो में जो अनुनाद उत्पन्न होता है;पुलकित कर देता है ,मन को, रोम रोम को । माँ वीणापाणी ने वीणा के तारो को झनकृत कीया हो एसा मधुर शब्द है" माँ "।
जब मालिक ने इन्सान को बनाया और उसे दुनियाँ में भेज ने को तत्पर हुआ तो फ़रिश्तो ने पूछा इसे अकेले ही दुनियाँ में भेजोगें। मालीक ने कहा नहीं, फ़रिश्ते के साथ । फ़रिश्तो ने पूछा-"कौन होगा वह फ़रिश्ता ,जो इस के साथ जाऎगा"? जवाब मिला ......."माँ"!
धरा की विशालता और देने काभाव है,"माँ"।शायद इसी लिये नदीयों को भी हम माँ कह के बुलाते है।जो पालती रही अपने किनारो पर सभ्यताओ को ।
शब्दो में नहीं व्यक्त की जा सकती है अनूभुति । गीतकारो ने ,कवियो ने ,शायरो ने "माँ " क्या है इसे व्यक्त करने की पूरजोर कोशीश की है ;पर फ़िर भी सभी आयामो को व्यक्त नहीं कर सके ।"माँ" उससे भी कही आगे है । मगर फ़िर भी वो गीत ,कविता ,नज़्मे,शेर अच्छे लगते है ; जिनमे माँ को चित्रीत किया गया हो ।जैसे माँ भाती हर एक को, वैसे ही भाते वो गीत ,वो नज़्मे ,वो शेर जिस में "माँ"शब्द है।
सारी दुनिया माँ के आँचल मे सीमट आती है।जब सारी दुनियाँ बैगानी हो जाती है ; तो अपनी होती सिर्फ़ "माँ"। बचपन को सहेजती ,किशोरावस्था को प्रवाह देती ,युवा वस्था में दिल की हर बात को समझती है सिर्फ़ "माँ"।इस "माँ" से मीठा और फ़लदायक कोई शब्द दुनियाँ में नही ।
"माँ" कि सत्ता और महत्ता को मनुष्य ने अनादि काल से जाना और पूजा है ।सनातन धर्म में "माँ"के सभी रूपो ,आयामो को पूजा है । दुर्गा सप्तशती प्रमाण है ।"या देवी सर्व भूतेषु मातॄ रुपेण संस्थीता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम :"। यही माँ का रूप,असंभव को संभव करता।अपने बालको का रक्षण करता ।मदर मेरी भी इससे अलग नही ।
"माँ"खुद गीले में सो कर बच्चे को सुखे मे सुलाती । खुद न सोती ,बच्चे कि निन्द न हो तो चिन्तीत हो जाती । तभी तो मन कहता ’ मेरी दुनियाँ है माँ तेरे आँचल में ’ ।माँ का आँचल सारा आकाश ओढ़े सा लगता है ,जब छुप जाते है माँ के आँचल में।
मनुष्य का मनोबल है माँ, आत्मा का संबल है माँ ।
नीड़ मे चिड़िया के पंखो के नीचे बैठे चूज़ो ने पुछा "माँ आकाश कितना बड़ा है "?
"तुम्हारे पंखो से छोटा " माँ ने कहा । यही मनोबल देती है माँ ।
मनुष्य क्या भगवान को भी भाया माँ का स्वरूप ,माँ का आँचल तभी तो लिया राम , कॄष्ण का अवतार ।
"कुपुत्रो जायते क्वचिदपी कुमाता न भवती" इस पंक्तिमें पूरा दर्शन छुपा है। पुत्र कुपुत्र हो सकते है पर माता कभी कुमाता नहीं होती।इस धरा पर शायद ही कोई ऎसा मनुष्य या जीव होगा ,जो माँ की सत्ता को नकार सके ।
मदर्स डे तो केवल व्यक्त करने का तरीका है। हर दिन माँ को समर्पित रहे , हर दिन मदर्स डे । शायद यही सब है ,जो कभी नवरात्री मनाने वाले को,मदर्स डे मनाने से नहीं रोकाता ।
और अन्त में "माँ" से कभी ना बिछड़े कोई जीव धरा पर।"माँ"के विछोह मे कोई आँख की कोर ना भीगे ;यही हम दुआ करे।
"वो कौन सी चीज़ है , जो यहाँ नहीं मिलती . सब कुछ मिल जाता है, लेकीन माँ नहीं मिलती"।

गुरुवार, 7 मई 2009

नीति विहीन राजनीति...........

चुनावो का दौर निपट ने को है।आम जन चुनाव प्रचार के दौरान ,नेताओ राजनेताओ के तमाम उद्दगारो से वाकिफ़ हुए ।कहीं लोक लुभावन बाते ,तो कहीं ड्रेगन की तरह आग उगलते विभिन्न दलो के राजनैता ।इस दौर मेंछीटा कशीं से पूर्ण चरित्र हनन तक सारी प्रक्रियाए हुई। कहीं खानदानो की विरुदावली बाची गई , तो कहीं वन्शो के अनुवान्शिकी गुणो का बखान । अपने नेताओ के लिये सुन्दर कथन ,विरोधीयो के लिये कहे शब्द , पिघलते सीसे के कान मे उन्डेले जाने जैसे ।
मर्यादा राजनीति मे प्रमुख शब्द, इस शब्द की सभी दुहाई देते । और करते चलते अमर्यादीत आचरण । इस दौर मे सभी, राजनिती के स्तर गिरने की बात करते है । यह हुआ भी है । पोलिटिकल लोगोके, कथनो वक्तव्यो, जो विभीन्न माध्यमो से हम तक पहुँचते है । उन मे मुल्यो के हास की बात साफ नजर आती है। जयशंकर प्रसाद के अनुसार "साहित्य समाज का दर्पण है "; वैसे ही जो घट रहा है वही अखबारो मे टी वी चेनल्स व साहित्य ,फ़िल्मो मे दिख रहा है।
आज जब भी पुराने नेताओ की बात की जाती है ;तो उसके साथ प्रकट होता है ,उनका तेजोमय ओरा ।तमाम मानवोचित गुणो के साथ ,नैतिकता ,ईमानदारी ,सादगी सहज ही उभर आती है उन तेजोमय चरित्रो मे। जे.पी. तथा आचार्य कॄपलानी जैसे लोगो के बाद मूल्यो और सिध्दातओं का दौर खत्म हुआ सा लगता है।
क्या हमारे समाज मे पहले की अपेक्षा ,कहीं शिक्षा या जाग्रती मे कोई कमी आई? जी नही आज के दौर मे हमारा समाज विकास के कई सौपान चढ़ चुका है।पुराने दौर में जहाँ स्नातक शिक्षा की व्यवस्था कुछ ही स्थानो पर थी ।शिक्षा का प्रसार कम था।वहाँ इस दौर में हर तहसील स्तर पर स्नातकोत्तर शिक्षा की व्यवस्था होचुकी या की जा रही है।साक्षरता का प्रतिशत काफ़ी बढ़ा है ।समाज में हर तरह की अवेयर नेस है।महा विद्यालयो में राजनिती विषय पर बड़े काम हुए ।इस विषय पर काफ़ी शोध हुऎ,बड़ी बड़ी थीसीसे लिखी जा चुकी है।बड़े बड़े डाक्टर ,पंडित इस विषय के हमारे पास उपलब्ध है,मगर व्यवहारीक तौर पर इस का कोई उपयोग नहीं।वही अब छोटे छोटे गाँवो ,कस्बो तक अग्रेंजी माध्यम के स्कूल ,कम्प्युटर शिक्षण व पर्सनालिटी डेवलप्मेन्ट कि कक्षाएँ होती है। वहीं धार्मिक चेनल्स की बाढ़ ; इन पर धर्म गुरू लोग , जीवन , धर्म ,कर्म ,राजनीति सभी का मर्म समझाते नज़र आते है ।आप खुद ही देखीये कितना परिवर्तन ।आदमी, आदमीयत के विकास की हर सुविधा मौजूद है।
मगर देश का दुर्भाग्य; नेताओ की वर्तमान पीढ़ी जो नेतृतव मे समाहित आधार भूत गुणो से रिती है तभी उनके आचरण में कहीं भी सिध्दातों, मुल्यो का नाम नहीं ।राजनिती में से निती का हास। सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता के लिये राजनीति ।
आज गाँवो ,कस्बो ,शहरो मे नेताओ की नई पौध शुरू होती है;वह अवैध अतिक्रमण को स्थानीय निकायो से महफ़ूज रखती है ।भूमियो पर कब्जाऔर उसका रक्षण।विरोधीयो का हिन्सक तरीके से निपटान ।अनीति से कुछ भी अर्जन करना ।ईमानदार सरकारी कर्मचारीयो से कुछ् भी सही गलत करवा लेना। ये सब करने के बाद प्रशिक्षु ,राजनीति के" गुरू मन्त्र "से दिक्षीत हो जाते है।और शुरू हो जाता है राजनैतिक जीवन ।
मर्यादा पुरूषोत्तम राम के अनुयाईयो में कहीं मर्यादा नहीं ।गाँधी के गुण गाने वाले .....गाँधी के दर्शन से कितनी दूर है।लोहिया सिर्फ़ किताबो मे है । कब तक रहेगी देश की बाग डोर ऎसे हाथो में। पुरानी पार्टीयो के बरगद ,क्षैत्रीय पार्टीयो की खरपतवार क्या "वास्तवीक नायको "को कभी जमीन देगी जो बदलाव की बयार ला सके ? इस संक्रमण काल मे शायद असंभव सा लगता है।हम और हमारा समाज बैठा रहेगा किसी मसीहा के इन्तजार मे जो बदलाव कि बयार ला सके। सोचते रहेगें "वो मसीहा आऎगा" "वो मसीहा आऎगा"’।

शनिवार, 2 मई 2009

ये कैसा हमारा लोकतंत्र......!


इन दिनो चाह कर भी दूसरे विषयो पर,ध्यान नहीं जाता। सभी के दिमाग मे सिर्फ़ एक ही बात चल रही है; की अगली सरकार किस की होगी ? किस पार्टी की सीटे सब से ज्यादा होगी? किस पार्टी कि सरकार बनाने मे अहम भूमिका होगी? "कौन होगा प्रधान मन्त्री" ?क्या बनने वाली सरकार स्थायीत्व वालीहोगी ? यही सब प्रश्न आम आदमी के मानस को मथ रहे है ।
इस दौर मे पन्द्रहवी लोक सभा के लिये निर्वाचन के तीन चरण निपट चुके है ।मतदान का प्रतिशत काफ़ी कम रहा ; अमुमन पचास से दो तीन प्रतिशत ज्यादा होगा ।इस देश की जनसंख्या एक अरब तीस करोड़ के लगभग है । इस मे कुल मतदाताओ की संख्या इसकी आधी ।चुनाव मे वोट देने वाले इस के भीआधे ।इन आधे मतदाताओ के द्वारा चुने प्रत्याशीओ की कुल सख्यां से किसी भी पार्टी को पूर्ण ,स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो ऎसी संभावना कम ही है।आखरी चरण के चुनाव के पहले और बाद भी सभी चैनलो और अखबारो में जोड़ तोड़ के गणित और संभावनाओ पर चर्चा चल रही है ।
अपने अपने सिध्दान्तो और विचारधारा की दुहाई देने वाली पार्टीयो में किस के साथ लाभ किस के साथ हानी;इन्ही सब विषयो पर चिन्तन चल रहा है ।"जिस मे हो दम उसी के साथ हम" जिनका सूत्र वाक्य है ,वे सत्ता का सुख पाने के खयाल से खुश है।
ऎसे मे, कुछ प्रश्न सहज ही सामने आते है।क्या क्षैत्रिय पार्टीयो का केन्द्र की सरकार हेतु ,अपने प्रत्याशी ओ को चुनाव लड़वाना ठीक है ? संख्या के आधार पर दो या चार सांसदो के साथ , सरकार मे अपनी भूमिका खुद तय करना क्या उचित है ? किसी भी विषय पर सरकार का शक्ति परिक्षण होना और एक मत पर सरकार का गिरना क्या उचित है? संख्या के खेल में हार्सट्रेडिंग ,अपनी शर्तो पर समर्थन देना , और जब चाहा वापसी की बात ,क्या यह उचित है ?शर्तो केसाथ मन्त्री का पद कीचाह, क्या यह लोकतन्त्र की मूल आत्मा का हनन तो नहीं?
इन सब प्रश्नोके उत्तर मे सिर्फ़ यही बात सामने आती है की; राष्ट्रीय स्तर की पार्टीओ ने अपनी लोकप्रियता खोई ,अपनी साख को गिराया है ।आम मतदाता के मानस से अपनी अच्छी छवि को मिटाया है ।परिणाम क्षेत्रीय पार्टीयो ने अपना स्थान बनाया।
निर्वाचन आयोग के द्वारा क्षैत्रीय पार्टीयो के समक्ष यह प्रावधान हो की वे सारे देश में अपने उम्मीदवार खड़े करे और एक निश्चीत संख्या मे सीटो को जीते , अन्यथा उनकी मान्यता रद्द कर दी जाएगी। जब यह दबाव होगा तो क्षैत्रीय पार्टीया स्वत: अलग हो जाएगी। यह हो तो कैसे हो ,किसी भी संवैधानीक संशोधन के लिए दो तीहाई बहुमत आवश्क है।
एक प्रश्न मुझ जेसे,कई लोगो के मन मे हमेशा चलता है की ;पूरे देश के कुल वोट मे से सबसे ज्यादा वोट प्राप्त करने वाली पार्टी विपक्ष मेंबैठती है , और उस से कम वोट पाने वाली पार्टी जोड़ तोड़ कर सत्ता में। किसी एक क्षैत्रीय पार्टी के मतदाता देश के तमाम मतदाताओ पर भारी कैसे हो जाते है ? तो यह जनता की कैसीचुनी हुई सरकार है ? क्या हमारा कथित लोकतन्त्र बिमार नहींहै ?
तमाम बुद्धिजिवी वर्ग ,राजनैताओ , तथा समाज के हर वर्ग को विचार करना होगा ,पहल करनी होगी।क्षैत्रीय पार्टीयो को अपनी राजनिती अपने क्षैत्र के लिये ही करनी होगी।केन्द्र मे बाय पोलर सिस्टम हो ,इस पर सभी छोटी पार्टीयो को सहमत होना होगा।
वर्तमान मे हमारी प्रणाली में जितने दोष है ;उन्हे दूर करने के लिये संशोधन किये जाए । मगर यह कैसे हो? क्या यह संभव है ?
जी;हाँ यह तभी संभव है,जब हर आदमी को जोड़ा जाए । हर वो आदमी जो ,टी वी शो के रेन्कीग केलिये एस एम एस करता है और आम चुनाव का बहिष्कार करता है ;.स्थानीय मुद्दो पर ;ऎसे वोटर को जोड़ना होगा चुनाव से । हर जो यह कहता है की मेरे अकेले के वोट से क्या होगा? उसे भी साथ मे लेना होगा।वोट संग्रहण की विधी {चुनाव }मे भी बदलाव की आवश्कता है । हर वोट जहाँ हो वही से जोड़ लीया जाए।एसी प्रणाली विकसीत की जाए , तभी बदलाव होगा । ।तभी सही मायनो में "लोकतन्त्र"होगा ।