" जूतयाई दिया ,जूतम पैजार ,जूतम मार, बिना जूते खाऎ अक्ल नहीं आयेगी,मियाँकि जूती मियाँ के सर" ये ऎसे शब्द समूह है जो वर्षो से मनुष्य वास्तविक प्रयोग तथा भाषागत हिंसा के लिये काम मे लेता रहा है।पिछले दिनो इराक के एक पत्रकार "मुन्तज़र ज़ेदी "ने तत्कालिन अमेरिकन राष्ट्रपति "बुश" पर जूता फ़ेका ।वह जूता विरोध दर्शाने के तरीके मे सब से ऊपर जा बैठा।
विरोध दर्शाने के सभ्य तरीके पुराने हो गये।सविनय अवग्या,सत्याग्रह ,विरोध मे मानव श्रंखला बनना , काला फ़िता लगाना ,हाय हाय के नारे लगाना ,अन्शन,धरना सब पुराने हुए ।सीधा ध्यान आकर्षीत करने वाले तरीको मे आ गया सबसे ऊपर"जूता फ़ेकना"। जूतो के दिन फ़िरे ,पैरो से उछल कर ,किसी सम्मानिय व्यक्ति के सिर पर ।इराकी पत्रकार को तो सजा हुई।मगर हमारे यहाँ पर चुनाव के समय पी.चिदम्बरम पर जूता उछाला गया तो आड़े आये चुनाव ,पार्टी कि छवी तथा वोट बैंकँ सभी । मुस्करा कर माफ़ करने के अलवा कोई विकल्प न था , बल्की बाध्यता थी।
लोकप्रियता की चाहत किसे नही ।जिन पर उछाला गया जूता ,उन्होने लोकप्रियता के लिए माफ़ किया ।अब जूता फ़ैकने् वालो ने आल इन्डीया फ़ेम के लिए ,जेसे काँच कि गोलियो से निशाना साधने के लिये एक दूसरे को टकराते है,वैसे हि दोनो जूतो ,चप्पलो को टकरा कर निशाना साध कर ,उल्ला जमा कर दिया, उछाल कर ।टी वी केमरे ,पत्रकार ,फ़ोटोग्राफ़र लगे सब "जूता साधक "को कवर करने। अगले दिन सुर्खीयो मे खबर।
चुनाव के मौसम मे - नेता ,पार्टी सब जूता फ़ेकने वाले के लिये दरियादिली दिख लाते और माफ़ करते चलते।"फ़ेकने वाले हिम्मत जूटाने" के लिए सुरापान करते और दें फ़ेक कर।बोल "सुरा मरद की जै"।
क्या यह सामाजिक बदलाव है। या नेताओ के अभिनेताओ के दिन भरने का संकेत या चेतावनी है की अब भी सम्भल जाओ ,वर्ना सचमुच जनता जूते मारेगी ।यह भी हो सकताहै की आने वाले समय मे"’अंतर्राष्ट्रीय जूता फ़ेको दिवस "भी मनाया जाए।
क्या नेता इसके दोषी नही ?मर्यादा तोड़ने पर सजा तो होना लाजमी है।क्या यह वोटो कि राजनिती नहीं हुई?या जो भी हो ;मगर आगे आने वाले समय के लिये जूता मारने वाली नई पोध को सिन्चीत किया ।परिणाम पी.एम .तक कि सभा तक मे जूता ।
युही चलता रहेगा जूता पुराण ;मगर एक किस्सा यह भी "एक बार ईश्वर चंद विद्यासागर " कोईनाटक देख रहे थे ।नाटक के द्रष्य मे खलनायक महिला पात्र को प्रताड़ीत कर रहा था , नाटक के तारत्व मे डुबे विद्यासागर जी को बहुत क्रोध आया, मुठ्ठीयाँ भीच गई ।अगले पल निकाला जूता ,दिया खलनायक पर फ़ैक ।खलनायक काचरित्र निबाहने वाले ने उस जूते को अपना पुरस्कार समझ कर सिर से लगाया । और कहा मेरे अभिनय मे असर है तभी तो"विद्यासागर जी " यह जानते हुए भी की यह नाटक है , फ़िर भी मेरे चरित्र से नफ़रत कीऔर यह जूता फ़ेका ।यह मेरे अभिनय का पुरस्कार है ।"सच वह जूता उसका पुरस्कार था"।
सोमवार, 27 अप्रैल 2009
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
बहुत बडिया तरीके से आपने बात को उठाया है , मुझे ये मुन्ना वादी गाँधी संस्कृति के करना ही हुआ लगता है , हम ने चीजों को उनके मूल में नकारने कि आदत बना ली है . खैर आज जूता मार संस्कृति तो नहीं हो सकती और न ही पुरस्कार .
जवाब देंहटाएंis article ko padhkar mujhe bhi aisa lagne laga hai ki kisi bhrasta NETA ke upper me bhi ek juta markar Famous ho jao.
जवाब देंहटाएं