जब जो चीज़ आपके पास होती है ,तो उसकी कद्र नहीं होती । जब नहीं होती तो हर पल उसी का ध्यान आता है ।ऎसी बहुत सी चीज़े होती है ;उन सब में अहम है , सैहत ।एक कहावत जो सच है और उसे मैंने अच्छी तरह से समझ लीया है । वो यह है "पहला सुख नीरोगी काया ,दूजा धन की माया"।
आगे की कहावत यहाँ प्रासंगिक नहीं।
बीमारी ,अस्पताल, दवाऎ ये सब पिछले दो माह से मेरे साथ इस कदर जूडे़ ,जैसे किसी लोक प्रिय
टी.वी कार्यक्रम के साथ ढेरो विग्यापन । मैं अपने दोनो पैरो की सुजन की वजह से चलने फ़िरने से तो क्या बैठने से भी दूर हुआ ।दर्द, बिस्तर और दवाईयाँ ये सब साथी बने व अस्पताल पर्यटन स्थल । वजह कोई ईनफ़ेक्शन ।बीमारी आई बहुत तेजी से मुझे बिस्तर पर लेजा कर पटक दिया । सेहत क्या होती है ,बिस्तर पर समझ मे आया ।समझ में आने लगी वो नसीहते ,जो बड़े लोग हमे दिया करते थे, व देते है।
काश के मैंने हर उस बात पर अमल किया होता,जो सेहत के लिये ज़रूरी है ।मगर अब क्या ;"कारवाँ
गुजर गया गुबार देख ते रहे " दिन रात यही सोचता रहता के काश ऎसा न होता ,ये क्यो हुआ। मगर फ़िर अगले पल खयाल आता की यह तो महज कोई इनफ़ेक्शन है। कभी भी किसे भी हो सकता है।
बेबसी और लाचारी एसी के दो कदम ,कोसो कि दुरी लगती । पेनकिलर सच्चे दोस्त लगते ।कभी घर के लोग बोलते बतियाते तो दुश्मनो जैसे लगते और चुप रह जाते तो लगता मैं सब से बड़ा उपेक्षीत मनुष्य हूँ। बैवजह चिड़्चिड़ाना ,खुद को,बीमारी और नसीब कोकोसना।यही सब रुटिन बन गया।टी.वी,रेडियो,अखबार किताबे सब चुभते से लगते।सब चिज़े बै मतलब की सी लगती।
वही डाक्टरो के फ़ेरे हर बार एक नई टेस्ट और नई दवाईयाँ नई आजमाईश । बीमारी पुछ्ने पर इन्फ़ेक्शन बतला कर चुप हो जाते ।वातावरण रहस्य मय होजाता मेरे आसपास।बरबस मैं अपने आप को अन्धेरे में पाता ।जहाँ से घुमना चलना दुसरी दुनियाँ की बात लगती ।मायुसी और बेबसी का ये आलम ; लगता जैसे तैसे रेल लाईन तक पहुचँ जाऊँ ,तो कोई गड़ी दर्द तकलीफ़ का अन्त तुरन्त कर जायेगी। नेगेटीव विचारो से जीतने मे मदद करते वे लोग जो हमारी भाषा मे "विकलांग " कहलाते ।मै उन के बारे मे सोचने लगता और मेरे आत्मघाती विचार खत्म हो जाते।
मैं सलाम करता हूँ उन अद्म्य साहसी लोगो को ;जो कुछ अंग या अंगो से विहिन होकर भी या कोई अन्य विक्लागंता के बावजूद भी समान्य तरिके से जीवन जीते है ।तथा वो सब भी करते है , जो समान्य मनुष्य नहीं कर सकता । अक्षमताओ के बावजूद जो मन और शरीर दोनो पर विजय पा कर सामान्य तरीके से जीते है।ऎसे लोग सचमुच सम्मानिय है ।प्रशंसा के योग्य है ।
एक बात और होती है बीमारी में , आपकी अच्छे स्वास्थ की कामना के साथ ,जाने अनजाने नुस्खे तथा ढेर सी हिदायते मिलती है।अपने लोगो तथा मिलने वालो से ।
अब थोड़ा चलफ़िर पा रहा हूँ ,टाईप भी कर पा रहा हूँ । अगली बार कब लिख पाऊँगा पता नहीं।
बीस पच्चीस दिन पहले , एक बार हिम्मत कर के कम्प्युटर के सामने बैठा ; मगर आँखो ,और हाथो ने मना किया ।एक कविता जो मुझे बहुत अच्छी लगी थी "पिता " किसी कार्ड पर प्रिन्ट थी ।उसके कवि ग्यात नहीं थे ।मैंने आधी टाईप की ;हिम्मत और ताकत जवाब दे गयी ।आगे की कविता मेने अपने आठ साल बेटे से टाईप करवाई। फ़ादर‘स डे पर ब्लाग पर लगाई । अभी एक दिन जब ब्लाग खोला तो आदरणिय समीर जी से ग्यात हुआ की वह रचना श्री ओम व्यास जी की है।वे दवाखाने में भर्ती थे ।नियती से श्री ओम व्यास जी हार गये । उनकी प्रेरणा दायक कविताऎं सदीयों तक पढी जायेंगी।ईश्वर उन्हें उत्तम लोक में उच्च पद प्रदान करें।
आखीर मे एक शेर किसी शायर का ,
" जिन्दगी को संभाल कर रखीये,
जिन्दगी मौत की अमानत है ।"
शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
रविवार, 21 जून 2009
पिता...
पिता
========
पिता जीवन है, संबल है, शक्ती है
पिता सॄष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है
पिता अंगुली पकड़े बच्चे का सहारा है
पिता कभी कुछ मीठा है तो कभी खारा है
पिता पालन-पोषण है,परिवार का अनुशासन है
पिता भय से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है
पिता रोटी है कपड़ा है मकान है
छोटे से परिन्दे का बड़ा आसमान है
पिता अप्रदर्शित ,अनन्त प्यार है
पिता है तो बच्चों को इन्तजार है
पिता से ही बच्चों के ढ़ेर सारे सपने है
पिता है तो बाज़ार के सब खिलोने अपने है
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है
पिता से ही माँ की बिन्दी और सुहाग है
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है
पिता गॄहस्थाश्रम में उच्च स्थिति की भक्ती है
पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पुर्ती है
पिता रक्त में दिये हुए संस्कारो की मुर्ती है
पिता एक जीवन को जीवन दान है
पिता दुनियाँ दिखाने का अहसास है
पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है
तो पिता से बड़ा तुम अपना नाम करो
पिता का अपमान नहीं अभीमान करो
क्योकी माँ-बाप की कमी कोई पाट नहीं सकता है
ईश्वर भी इनके आशीषों को काट नहीं सकता
दुनियाँ में किसी भी देवता का स्थान दूजा है
माँ -बाप की सेवा ही सब से बड़ी पूजा है
विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्रा सब व्यर्थ है
यदि बेटे के होते हुए माँ-बाप असमर्थ है
वो खुशनसीब होते है,माँ-बाप जिनके साथ होते है
क्योकी माँ-बाप के आशीषो के हज़ारो हाथ होते है ..
फ़ादर‘स डे पर सभी का अभीनंदन करत हुऎ। पिता शक्ती को सो सो प्रणाम करके , एक अग्यात कवि की कविता , प्रेरणा स्वरूप;
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पिता जीवन है, संबल है, शक्ती है
पिता सॄष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है
पिता अंगुली पकड़े बच्चे का सहारा है
पिता कभी कुछ मीठा है तो कभी खारा है
पिता पालन-पोषण है,परिवार का अनुशासन है
पिता भय से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है
पिता रोटी है कपड़ा है मकान है
छोटे से परिन्दे का बड़ा आसमान है
पिता अप्रदर्शित ,अनन्त प्यार है
पिता है तो बच्चों को इन्तजार है
पिता से ही बच्चों के ढ़ेर सारे सपने है
पिता है तो बाज़ार के सब खिलोने अपने है
पिता से परिवार में प्रतिपल राग है
पिता से ही माँ की बिन्दी और सुहाग है
पिता परमात्मा की जगत के प्रति आसक्ति है
पिता गॄहस्थाश्रम में उच्च स्थिति की भक्ती है
पिता अपनी इच्छाओं का हनन और परिवार की पुर्ती है
पिता रक्त में दिये हुए संस्कारो की मुर्ती है
पिता एक जीवन को जीवन दान है
पिता दुनियाँ दिखाने का अहसास है
पिता सुरक्षा है, अगर सिर पर हाथ है
पिता नहीं तो बचपन अनाथ है
तो पिता से बड़ा तुम अपना नाम करो
पिता का अपमान नहीं अभीमान करो
क्योकी माँ-बाप की कमी कोई पाट नहीं सकता है
ईश्वर भी इनके आशीषों को काट नहीं सकता
दुनियाँ में किसी भी देवता का स्थान दूजा है
माँ -बाप की सेवा ही सब से बड़ी पूजा है
विश्व में किसी भी तीर्थ की यात्रा सब व्यर्थ है
यदि बेटे के होते हुए माँ-बाप असमर्थ है
वो खुशनसीब होते है,माँ-बाप जिनके साथ होते है
क्योकी माँ-बाप के आशीषो के हज़ारो हाथ होते है ..
फ़ादर‘स डे पर सभी का अभीनंदन करत हुऎ। पिता शक्ती को सो सो प्रणाम करके , एक अग्यात कवि की कविता , प्रेरणा स्वरूप;
शुक्रवार, 5 जून 2009
सिमटते रिश्ते.......
वर्तमान दौर न्युक्लियर फ़ेमिली का दौर है ।इस समय में परिवार मतलब पति पत्नि व बच्चा है ।सारी परिभाषाए बदल चुकी है । भौतिकवाद के इस दौर में भौतिक साधनो का विस्तार हुआ है ;कमफ़र्ट पर अधीक ध्यान देता है आज का आदमी । साधनो के विस्तार में कोई कमी नहीं चाहिऎ उसे ।मगररिश्तो के दायरो को समेटता जारहा है, रिश्तो को सिकोड़ता जा रहा है ।हक ,अधिकार सभी सिमटते जा रहे है ,रिश्तो की दुनिया में। युँ कहा जाए तो आज का मानव सेल्फ़ सेन्टरड हो गया है।
आज कल छोटे बच्चो के कोर्स की किताब में एक पिक्चर डिक्शनरी होती है । उस किताब मे एक पेज़ पर माय फ़ेमिली का चित्र होता है। उसके माद्यम से बच्चो को बतलाया जाता है ,कि फ़ादर मदर के अलावा भी रिश्ते होते है ,रिश्तेदार होते है।वास्तव में आज के युग में लोग रिश्तो को जीना भुल चुके है। उसकी कमी को पूराकरता है वह पेज़ ।बच्चा एक रिश्ता जी लेता है उन चित्रो पर अगुंली रख कर ।
अगुंली रख कर बच्चा बोलता है ग्रेण्ड्फ़ादर मतलब दादा ।सच मेंबच्चे का दादा उसके सथ नहीं।
दादा या तो उसके पिता की ज्यादतीयो का शीकार है या पिता ,दादा की दादागिरी का मारा। अब सबसे करीबी रिश्ता पिता पुत्र का उसमे भी बे-ईमानी स्वार्थो का टकराव शेष दुनिया की क्या कहे ?
अच्छे भाई कभी कभी ही हुए है कहानीयों में ।वास्त्व मे स्वार्थ एसा तत्व है जो ,भाइयो को एक नहीं होने देता।बहन अपअने वर्चस्व की लड़ाई में हमेशा संघर्श रत होती। ब्याह के बाद भी अपने वर्चस्व की लड़ाई में जूटे रहना उसकी बाध्यता है। काका ,मामा ,मासी,भुआ तो दूर की बात हुऎ। अब बतलाइये सच में कौन सी है माय फ़ेमिली ?
आज के समय मे न्यायालयो मे मुक्कदमो का सर्वे किया जाए तो ,एक अच्छी संख्या होगी भाइयो और पारिवारीक विवादो के मुक्कदमों की।एक तरफ़ मेहमान को हम जान से प्यारा मानते है , तो दूसरी तरफ़ माँ जाये भाईयो में संपत्ती के विवाद । कैसा सांस्कॄतीक विरोधाभास जीते है हम और हमारा समाज..!
बहन अपने आस पास के सारे लोगो का ध्यान चाहती है साथ ही चाहती है अपनी सारी अपेक्षाओ की पुर्ती अवीवाहित होने पर तथा विवाहित होने पर भी । और अब पेतॄक संपत्ती पर भी कानूनन हक की बात भी।बतलाईये दिल से कितने भाइयो को बहनो से लगाव है ?
काका,मामा, ताऊ दूर की दुनियाँ के बाशिन्दे है ।सब अपनी अपनी लकीरे बड़ी करने में लगे होते है। यकींन न हो तो देखिऎ इस दौर के टीवी सिरियल , हो सकता है कुछ अतीशयोक्ती पुर्ण होगें; तो कुछ यकीन की हद में।ये सब इसी दुनियाँ की कहानीयाँ है।
आज कहीं संयुक्त परिवार हो ,और उसकी जिन्दगी स्मूद ली चल रही है तो समाचार पत्रो में उसकी खबर छपती है । लोग उसके चर्चे करते है;रश्क करते है। खुद अपनी बात हो तो समेट लेते है खुद को अपने शेल्टर में कछुए की तरह। कैसा लगता है यह सब जैसे "कोई आदतन झूठ बोलने वाला ,सत्य नारायण की कथा बाचें "; जी हाँ,रिश्तो और रिश्तेदारीयो में कुछ इस ही तरह होता है ,आज कल ।
हम विदेशो की बाते करते है की ;परिवार नाम की संस्था वहाँ कमजोर हुई है । हमारे समाज का हम सिहांवलोकन करे तो हम क्या पाते है?
हर कोई एक ही चीज़ को प्राथमिकता देता नज़र आएगा "होल थिन्ग इज़ देट के भईय्या सब्से बड़ा रूपया " रिश्ते बाद की बात है।
में और मेरा .......!, बड़ा दुश्मन है ; सब रिश्तो के साथ चलने का । छोटे छोटे अहम बड़े टकरावो को जन्म देते । सयुंक्त परिवार तो क्या , एकल परिवार भी बिखर जाते इस तरह के टकरावो से ।
कुछ किस्मत वाले संयुक्त परिवारो मे आज भी रिश्तो मे गर्मी है ,वे लोग जी रहे है रिश्तो को भरपूर तरिको से ।आस पास तलाशे तो पाऎगें ,ऎसे परिवार कुछ एक ही है।
खैर आने वाले समय में ,हर जगह जहाँ एक ही बच्चा है ;वहाँ भुल जाऎगे वे सब रिश्तो को ।क्योकी एक बच्चे का कोई भाई नहीं तो कहाँ चाचा ,ताऊ ? बहन नहीं तो कहाँ मौसी ,भुआ ?
तब शायद चचेरे ,ममेरे ,मौसेरे फ़ूफ़ेरे भाई बहन भी नहीं होगें ?
देखिऎ वह वक्त दूर नहीं .............सच ! वह वक्त दूर नहीं ।
आज कल छोटे बच्चो के कोर्स की किताब में एक पिक्चर डिक्शनरी होती है । उस किताब मे एक पेज़ पर माय फ़ेमिली का चित्र होता है। उसके माद्यम से बच्चो को बतलाया जाता है ,कि फ़ादर मदर के अलावा भी रिश्ते होते है ,रिश्तेदार होते है।वास्तव में आज के युग में लोग रिश्तो को जीना भुल चुके है। उसकी कमी को पूराकरता है वह पेज़ ।बच्चा एक रिश्ता जी लेता है उन चित्रो पर अगुंली रख कर ।
अगुंली रख कर बच्चा बोलता है ग्रेण्ड्फ़ादर मतलब दादा ।सच मेंबच्चे का दादा उसके सथ नहीं।
दादा या तो उसके पिता की ज्यादतीयो का शीकार है या पिता ,दादा की दादागिरी का मारा। अब सबसे करीबी रिश्ता पिता पुत्र का उसमे भी बे-ईमानी स्वार्थो का टकराव शेष दुनिया की क्या कहे ?
अच्छे भाई कभी कभी ही हुए है कहानीयों में ।वास्त्व मे स्वार्थ एसा तत्व है जो ,भाइयो को एक नहीं होने देता।बहन अपअने वर्चस्व की लड़ाई में हमेशा संघर्श रत होती। ब्याह के बाद भी अपने वर्चस्व की लड़ाई में जूटे रहना उसकी बाध्यता है। काका ,मामा ,मासी,भुआ तो दूर की बात हुऎ। अब बतलाइये सच में कौन सी है माय फ़ेमिली ?
आज के समय मे न्यायालयो मे मुक्कदमो का सर्वे किया जाए तो ,एक अच्छी संख्या होगी भाइयो और पारिवारीक विवादो के मुक्कदमों की।एक तरफ़ मेहमान को हम जान से प्यारा मानते है , तो दूसरी तरफ़ माँ जाये भाईयो में संपत्ती के विवाद । कैसा सांस्कॄतीक विरोधाभास जीते है हम और हमारा समाज..!
बहन अपने आस पास के सारे लोगो का ध्यान चाहती है साथ ही चाहती है अपनी सारी अपेक्षाओ की पुर्ती अवीवाहित होने पर तथा विवाहित होने पर भी । और अब पेतॄक संपत्ती पर भी कानूनन हक की बात भी।बतलाईये दिल से कितने भाइयो को बहनो से लगाव है ?
काका,मामा, ताऊ दूर की दुनियाँ के बाशिन्दे है ।सब अपनी अपनी लकीरे बड़ी करने में लगे होते है। यकींन न हो तो देखिऎ इस दौर के टीवी सिरियल , हो सकता है कुछ अतीशयोक्ती पुर्ण होगें; तो कुछ यकीन की हद में।ये सब इसी दुनियाँ की कहानीयाँ है।
आज कहीं संयुक्त परिवार हो ,और उसकी जिन्दगी स्मूद ली चल रही है तो समाचार पत्रो में उसकी खबर छपती है । लोग उसके चर्चे करते है;रश्क करते है। खुद अपनी बात हो तो समेट लेते है खुद को अपने शेल्टर में कछुए की तरह। कैसा लगता है यह सब जैसे "कोई आदतन झूठ बोलने वाला ,सत्य नारायण की कथा बाचें "; जी हाँ,रिश्तो और रिश्तेदारीयो में कुछ इस ही तरह होता है ,आज कल ।
हम विदेशो की बाते करते है की ;परिवार नाम की संस्था वहाँ कमजोर हुई है । हमारे समाज का हम सिहांवलोकन करे तो हम क्या पाते है?
हर कोई एक ही चीज़ को प्राथमिकता देता नज़र आएगा "होल थिन्ग इज़ देट के भईय्या सब्से बड़ा रूपया " रिश्ते बाद की बात है।
में और मेरा .......!, बड़ा दुश्मन है ; सब रिश्तो के साथ चलने का । छोटे छोटे अहम बड़े टकरावो को जन्म देते । सयुंक्त परिवार तो क्या , एकल परिवार भी बिखर जाते इस तरह के टकरावो से ।
कुछ किस्मत वाले संयुक्त परिवारो मे आज भी रिश्तो मे गर्मी है ,वे लोग जी रहे है रिश्तो को भरपूर तरिको से ।आस पास तलाशे तो पाऎगें ,ऎसे परिवार कुछ एक ही है।
खैर आने वाले समय में ,हर जगह जहाँ एक ही बच्चा है ;वहाँ भुल जाऎगे वे सब रिश्तो को ।क्योकी एक बच्चे का कोई भाई नहीं तो कहाँ चाचा ,ताऊ ? बहन नहीं तो कहाँ मौसी ,भुआ ?
तब शायद चचेरे ,ममेरे ,मौसेरे फ़ूफ़ेरे भाई बहन भी नहीं होगें ?
देखिऎ वह वक्त दूर नहीं .............सच ! वह वक्त दूर नहीं ।
शुक्रवार, 29 मई 2009
खत लिख दे.............
सूचना क्रांती के इस दौर में पत्र लेखन का महत्व कम से कम होगया है ।एक समय था जब पत्र बहुत ही महत्व पूर्ण था । व्यवसायीक पत्र तो उस समय में भी लिखे जाते थे,आज भी लिखे जाते है। मगर पारि्वारीक पत्र मित्रो ,परिचितो को पत्र प्रेयसी को प्रेम पत्र ये सब लोग भूल गये और भूलते जा रहे है।वर्तमान समय में फ़ोन, मोबाइल फ़ोन ,ई-मेल ,एस.एम.एस .ये सब मुख्य माध्यम बनगये है।
पत्र लेखन एक बहुत ही रचनात्मक काम होता था । व्यक्ती स्वयं अपनी एक शैली विकसीत करता था। प्रिय , आदरणिय ,पूज्य,अत्र कुशल तत्रास्तु , हम कुशल से आपकी कुशलता की कामनासे चलकर आपका अपना ,तुम्हारा ,आपका आग्याकारी तक सब कुछ मधुर मधुर लगता था ।अब इन शब्दो का स्थान ले लिया है -हेलो ,हाई और बाईबाई ने ;और कीपेड पर चलता अँगुठा ,इसी में पूरा हुआ सब कुछ।
पत्र लेखन सिर्फ़ समाचार पहुँचाने का माध्यम ही नहीं था ,अपितु इसका साहित्यीक महत्व भी होता था । पं.नेहरू जी ने पत्रो केमाध्यम से अपनी बेटी को जो कुछ लिखा वह डिस्कवरी आफ़ इंडिया के रूप मे सब के सामने है।ऎसे कई महापुरुषो के पत्र आज साहित्य की धरोहर है।
खतो किताबत का एक अलग ही आनंद होता था ।स्वीकरोक्ती का अच्छा माध्यम होता था पत्र लेखन ।गांधी जी ने बचपन में जो गलत किया , सीधे बताने का साहस न हुआ तो पिता को पत्र लिख कर सब कह दिया ।एक अच्छी विधा "पत्र लेखन " पर अब बिजनेस लेटर के रुप मे ही जीवित है ।
पहले मुहल्ले में जिस के घर ज्यादा पत्र और डाक आती थी ,वह व्यक्ती उतना सम्मान की द्रष्टि देखा जाता था । पत्र पत्रीकाओ में एक कालम होता था पत्र मित्र का । तस्वीर के साथ पता छपा होता था पत्र मित्रता के लिये ।लोग अनजान लोगो को मित्र बना लेते थे, पत्र लिख कर।
उस दौर के फ़िल्मी गानो में भी पत्रो का जीक्र होता था ।"खत लिखदे सावरियाँ के नाम बाबु ", "हम ने सनम को खत लिखा ", "फ़ूल तुम्हे भेजा है खत में" , "लिखे जो खत तुझे"ऎसे सेकड़ो गानो ने
पत्रो के गौरव को बढा़या है । डाकिया भी महत्व पुर्ण होता था ,उसका इन्तजार हर कोई करता था।"डाकिया डाक लाया , डाकिया डाक लाया । खुशी का पैगाम कहीं कहीं दर्द नाम लाया "उक्त गाना सचमुच चरितार्थ होता था । निदा फ़ज़ली साहब का एक शेर है - डाकिया बड़ा जादुगर , करता बहुत कमाल;
एक ही झोले में भरे, आँसू और मुस्कान,
इतने सुन्दर शेरो ,और काव्य रचना का आधार पत्र ही तो है। मगर अफ़सोस डाक खानो का काम कम कर रहे फ़ोन मोबाईल ने पत्र लेखन को हाशिए पर ढकेल दिया ।
पत्र ,पत्रिकाओ, समाचार पत्रो को भेजे जाने वाले पत्रो मेंभी कमी आयी है । आईपाड और एफ़ .एम. के ज़माने में , फ़रमाइशी पत्रो के माधयम से जाने ,जाने वाले झुमरीतलैया को लोग भूल रहे है।
वो प्रेमी ,प्रेमीका का छुप छुप कर पत्र लिखना , भेजना और पढ़ना सोचिये कितना रोमान्टीक होता था ।इस माध्य्म के चलते प्रेमी प्रेमीका ,पूरी तरह से मेच्योर हो जाते थे ;परिणीती विवाह तक ।
कक्षा तीन से छुट्टी के प्रार्थनापत्र से चल कर प्रेम पत्र तक का सफ़र बहुत ही सुहाना होता था । "कबूतर जा जा ,पहले प्यार की पहली चिठ्ठी " आदिम युग की बात है अब सीधा पूछा जाता है "व्हाट इस योर मोबाईल नम्बर " यही तो जेट एज है ।
गालिब ने कहा-
क़ासिद के आते-आते इक खत और लिख रखूं
में जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में.
शायद ,ये शेर अब सामयिक नहीं ।मगर शेर अच्छा लगता है। खुदा करे खतो-ओ-किताबत चलती रहे ,फ़ोन, मोबाइल फ़ोन ,ई-मेल ,एस.एम.एस . के इस दौर में ।ताकी अगली पीढ़ी भी जान सके पत्र लेखन की विधा को ।
पत्र लेखन एक बहुत ही रचनात्मक काम होता था । व्यक्ती स्वयं अपनी एक शैली विकसीत करता था। प्रिय , आदरणिय ,पूज्य,अत्र कुशल तत्रास्तु , हम कुशल से आपकी कुशलता की कामनासे चलकर आपका अपना ,तुम्हारा ,आपका आग्याकारी तक सब कुछ मधुर मधुर लगता था ।अब इन शब्दो का स्थान ले लिया है -हेलो ,हाई और बाईबाई ने ;और कीपेड पर चलता अँगुठा ,इसी में पूरा हुआ सब कुछ।
पत्र लेखन सिर्फ़ समाचार पहुँचाने का माध्यम ही नहीं था ,अपितु इसका साहित्यीक महत्व भी होता था । पं.नेहरू जी ने पत्रो केमाध्यम से अपनी बेटी को जो कुछ लिखा वह डिस्कवरी आफ़ इंडिया के रूप मे सब के सामने है।ऎसे कई महापुरुषो के पत्र आज साहित्य की धरोहर है।
खतो किताबत का एक अलग ही आनंद होता था ।स्वीकरोक्ती का अच्छा माध्यम होता था पत्र लेखन ।गांधी जी ने बचपन में जो गलत किया , सीधे बताने का साहस न हुआ तो पिता को पत्र लिख कर सब कह दिया ।एक अच्छी विधा "पत्र लेखन " पर अब बिजनेस लेटर के रुप मे ही जीवित है ।
पहले मुहल्ले में जिस के घर ज्यादा पत्र और डाक आती थी ,वह व्यक्ती उतना सम्मान की द्रष्टि देखा जाता था । पत्र पत्रीकाओ में एक कालम होता था पत्र मित्र का । तस्वीर के साथ पता छपा होता था पत्र मित्रता के लिये ।लोग अनजान लोगो को मित्र बना लेते थे, पत्र लिख कर।
उस दौर के फ़िल्मी गानो में भी पत्रो का जीक्र होता था ।"खत लिखदे सावरियाँ के नाम बाबु ", "हम ने सनम को खत लिखा ", "फ़ूल तुम्हे भेजा है खत में" , "लिखे जो खत तुझे"ऎसे सेकड़ो गानो ने
पत्रो के गौरव को बढा़या है । डाकिया भी महत्व पुर्ण होता था ,उसका इन्तजार हर कोई करता था।"डाकिया डाक लाया , डाकिया डाक लाया । खुशी का पैगाम कहीं कहीं दर्द नाम लाया "उक्त गाना सचमुच चरितार्थ होता था । निदा फ़ज़ली साहब का एक शेर है - डाकिया बड़ा जादुगर , करता बहुत कमाल;
एक ही झोले में भरे, आँसू और मुस्कान,
इतने सुन्दर शेरो ,और काव्य रचना का आधार पत्र ही तो है। मगर अफ़सोस डाक खानो का काम कम कर रहे फ़ोन मोबाईल ने पत्र लेखन को हाशिए पर ढकेल दिया ।
पत्र ,पत्रिकाओ, समाचार पत्रो को भेजे जाने वाले पत्रो मेंभी कमी आयी है । आईपाड और एफ़ .एम. के ज़माने में , फ़रमाइशी पत्रो के माधयम से जाने ,जाने वाले झुमरीतलैया को लोग भूल रहे है।
वो प्रेमी ,प्रेमीका का छुप छुप कर पत्र लिखना , भेजना और पढ़ना सोचिये कितना रोमान्टीक होता था ।इस माध्य्म के चलते प्रेमी प्रेमीका ,पूरी तरह से मेच्योर हो जाते थे ;परिणीती विवाह तक ।
कक्षा तीन से छुट्टी के प्रार्थनापत्र से चल कर प्रेम पत्र तक का सफ़र बहुत ही सुहाना होता था । "कबूतर जा जा ,पहले प्यार की पहली चिठ्ठी " आदिम युग की बात है अब सीधा पूछा जाता है "व्हाट इस योर मोबाईल नम्बर " यही तो जेट एज है ।
गालिब ने कहा-
क़ासिद के आते-आते इक खत और लिख रखूं
में जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में.
शायद ,ये शेर अब सामयिक नहीं ।मगर शेर अच्छा लगता है। खुदा करे खतो-ओ-किताबत चलती रहे ,फ़ोन, मोबाइल फ़ोन ,ई-मेल ,एस.एम.एस . के इस दौर में ।ताकी अगली पीढ़ी भी जान सके पत्र लेखन की विधा को ।
बुधवार, 20 मई 2009
सब चलता है..........
हम भारतीय लोग ,हमारी अपनी कुछ विशिष्टताऎ है।राजनीति पर चर्चाऎ तो खुब करते है ,मगर वोट नहीं देते है । हम स्थानीय प्रशासन को खुब कोसते है ,व्यवस्था नाम की चीज़ नहींहै ,ऎसाहै वैसा है। गाँव ,नगर ,शहर में सभी कचरे की ,गन्दगी की दुहाई देते मगर हम खुद अव्यवस्था फ़ैलाते है ।अपने घर की सफ़ाई कर कुड़ा कचरा सीधा बाहर सड़क पर । "कोई बात नहीं मेरा घर तो साफ़ है"। नगरपालिका की खाली कचरापेटी गवाह बनती है इन सब की।सार्वजनिक स्थानो पर डस्टबीन्स का प्रयोग हमारी शान के खिलाफ़ है।
सिंगापुर , जापान की बाते की जाती है,वँहा सड़के काँच जैसी साफ़ सुथरी है ।ये तमाम बाते किजाती है इसी दरमीयान बातो के बीच मुँह का जर्दा पान सड़क पर ,दीवार पर किसी भी कोने पर आक थू। बना दिया सिंगापुर जापान इन्डिया सब का नक्शा एक बार में । कोई बीच में टोंके तो जवाब होगा सब चलता है यार। एक मुस्कान और बात ख्त्म।
कुत्ते और दुसरे जानवर पालेगें ,सड़को के किनारे गन्दगी करवाएगे ।फ़िर शहर की नगरपालिका को कोसेगें। देश ,देश की व्यवस्था यह सब हमारे आलोचना का विषय होगें। अपनी गाड़ी से जा रहे है , ट्रेफ़िक पुलिस ने रोका चेक किया ,कागज नहींहै ,हेलमेट नहींहै ,सीट बेल्ट नही लगाया , तीन सवारी जो भी अवैधानीक हो ;पुलीस के कर्मचारी को ऊपर की पँहुच का वास्ता देते है।कुछ ले दे के मामला निपटाने का प्रयास करते है।फिर वही बाते हमारे देश मे करप्शन कितना बड़ा हुआ है ।खुद गाड़ी कभी ठीक से नही चलाएगे मगर हम इंडियन में ट्रेफ़िक सेन्स नहीं है ।यह कहने से बाज़ नही आयेगें।
किसी सरकारी काम के लिये किसी दफ़्तर मे गये :मालुम चला की उस काम के पूरे प्रोसिजर मे दो माह का वक्त लगेगा ।तब संबन्धीत कर्मचारी अधिकारी को कुछ भेट इत्यादी से मनाने का प्रयास ,येन केन प्रकारेण अपना काम निकालना । बाहर फ़िर वही बातें देश में भ्रष्टाचार खुब बड़ गया है।बहुत खराब हालत है देश की ।
विदेशो की कहते है,वहाँ आदमी खुद कार्ड पंच कर पार्किगं टीकिट लेता सब कुछ व्यवस्थीत स्वत: ।हमारे यहाँ गाड़ी कही भी लगा दी क्रेन ने गाड़ी उठा ली । लगे सारी व्यवस्था को कोसने । खुद नही देखते की गाड़ी ठीक जगह और ठीक तरीके से पार्क नहीं की है ।
ट्रेन्स लेट ,डिब्बे साफ़ नही ,पानी नही मौखीक जमाखर्च होता रहेगा ।स्टेशन मास्टर या संबन्धीत अधिकारी तक शिकायत कोई नही पहुँचाता । रेल्वे और देश दोनो को कोसते रहेगें ।हर जगह देश में शिकायत एवं सुझाव का प्रावधान है , मगर हमे क्या ।
गाड़ी में पेट्रोल डलाते समय नाप और क्वालिटी का रोना रोऎगें वहाँ मोजूद कम्पनी प्रद्त्त जाँच और नाप सुविधा को नजर अन्दाज करे देते है ।
कोई अपराधी छवी वाला उम्मीदवार मैदान मे हो तो ,जनता उसे चुनके संसद ,विधानसभा ,न.पा. ,पंचायत कही भी बिठादेगी ।फ़िर वही चर्चा राजनिती गुंडो का काम है बहु बलीयो के बस की बात है।
देश मे फ़ेले अधंविश्वासो ,पिछड़े पन की बाते खुब सारी , साथ ही दरवाजे पर दुकानो पर निम्बु मिर्चि लटकाना हमारा प्रिय शगल है ।
किसी छोटे ने चालान जुर्माना इत्यादी भरा हो तो बड़े बुढ़े यह कहते नज़र आयेगें "तुम में जरा भी होशीयारी नहीं है , कुछ ले दे के बात खत्म करनी थी।कम मे काम होजाता ।ये चीजे कब सिखोगें"?
ऎतीहासिक इमारतो पर कोयले और पत्थरो से खुदे लैला मज़नूओके शिलालेख यह बताते की,हममे कितने अवेयर है ।ये इमारते खुद चिल्ला चिल्ला कर अपनी कहानी कहती है।
खुदा न खास्ता अगर किसी कोर्ट में मामला चल रहा हो तो अपने हिसाब से तारिखे बढवाने को कुछ नोट बढा कर ,तारीख बढ़वा ली।फ़िर भ्रष्टाचार का वही गीत गाते ।
जी हम स्कूल मे नैतिक शिक्षा पढ़ा सकते है ,अमल मे लाना व्यर्थ है। हर वर्ज़ना और वर्ज़ित को करना हमारा धर्म होता है । आज़ादी के बासठ साल के बाद भी हम व्यवस्थाओ मे कोई विशेष बद्लाव नहीं पाते है।साथ ही देश समाज ,व्यवस्था को कोसना ही हमारा धर्म , दायीत्व एवं प्रिय शगल है । कब तक हम अपनी लापरवाहीयो ,गलतीयो को सरकार ,प्रशासन ,नगर पालिकाओ पर थोपते रहेगें ।" सब चलता है " इस जुमले पर कब तक अमल करेगें ?आखिर कब तक?
सिंगापुर , जापान की बाते की जाती है,वँहा सड़के काँच जैसी साफ़ सुथरी है ।ये तमाम बाते किजाती है इसी दरमीयान बातो के बीच मुँह का जर्दा पान सड़क पर ,दीवार पर किसी भी कोने पर आक थू। बना दिया सिंगापुर जापान इन्डिया सब का नक्शा एक बार में । कोई बीच में टोंके तो जवाब होगा सब चलता है यार। एक मुस्कान और बात ख्त्म।
कुत्ते और दुसरे जानवर पालेगें ,सड़को के किनारे गन्दगी करवाएगे ।फ़िर शहर की नगरपालिका को कोसेगें। देश ,देश की व्यवस्था यह सब हमारे आलोचना का विषय होगें। अपनी गाड़ी से जा रहे है , ट्रेफ़िक पुलिस ने रोका चेक किया ,कागज नहींहै ,हेलमेट नहींहै ,सीट बेल्ट नही लगाया , तीन सवारी जो भी अवैधानीक हो ;पुलीस के कर्मचारी को ऊपर की पँहुच का वास्ता देते है।कुछ ले दे के मामला निपटाने का प्रयास करते है।फिर वही बाते हमारे देश मे करप्शन कितना बड़ा हुआ है ।खुद गाड़ी कभी ठीक से नही चलाएगे मगर हम इंडियन में ट्रेफ़िक सेन्स नहीं है ।यह कहने से बाज़ नही आयेगें।
किसी सरकारी काम के लिये किसी दफ़्तर मे गये :मालुम चला की उस काम के पूरे प्रोसिजर मे दो माह का वक्त लगेगा ।तब संबन्धीत कर्मचारी अधिकारी को कुछ भेट इत्यादी से मनाने का प्रयास ,येन केन प्रकारेण अपना काम निकालना । बाहर फ़िर वही बातें देश में भ्रष्टाचार खुब बड़ गया है।बहुत खराब हालत है देश की ।
विदेशो की कहते है,वहाँ आदमी खुद कार्ड पंच कर पार्किगं टीकिट लेता सब कुछ व्यवस्थीत स्वत: ।हमारे यहाँ गाड़ी कही भी लगा दी क्रेन ने गाड़ी उठा ली । लगे सारी व्यवस्था को कोसने । खुद नही देखते की गाड़ी ठीक जगह और ठीक तरीके से पार्क नहीं की है ।
ट्रेन्स लेट ,डिब्बे साफ़ नही ,पानी नही मौखीक जमाखर्च होता रहेगा ।स्टेशन मास्टर या संबन्धीत अधिकारी तक शिकायत कोई नही पहुँचाता । रेल्वे और देश दोनो को कोसते रहेगें ।हर जगह देश में शिकायत एवं सुझाव का प्रावधान है , मगर हमे क्या ।
गाड़ी में पेट्रोल डलाते समय नाप और क्वालिटी का रोना रोऎगें वहाँ मोजूद कम्पनी प्रद्त्त जाँच और नाप सुविधा को नजर अन्दाज करे देते है ।
कोई अपराधी छवी वाला उम्मीदवार मैदान मे हो तो ,जनता उसे चुनके संसद ,विधानसभा ,न.पा. ,पंचायत कही भी बिठादेगी ।फ़िर वही चर्चा राजनिती गुंडो का काम है बहु बलीयो के बस की बात है।
देश मे फ़ेले अधंविश्वासो ,पिछड़े पन की बाते खुब सारी , साथ ही दरवाजे पर दुकानो पर निम्बु मिर्चि लटकाना हमारा प्रिय शगल है ।
किसी छोटे ने चालान जुर्माना इत्यादी भरा हो तो बड़े बुढ़े यह कहते नज़र आयेगें "तुम में जरा भी होशीयारी नहीं है , कुछ ले दे के बात खत्म करनी थी।कम मे काम होजाता ।ये चीजे कब सिखोगें"?
ऎतीहासिक इमारतो पर कोयले और पत्थरो से खुदे लैला मज़नूओके शिलालेख यह बताते की,हममे कितने अवेयर है ।ये इमारते खुद चिल्ला चिल्ला कर अपनी कहानी कहती है।
खुदा न खास्ता अगर किसी कोर्ट में मामला चल रहा हो तो अपने हिसाब से तारिखे बढवाने को कुछ नोट बढा कर ,तारीख बढ़वा ली।फ़िर भ्रष्टाचार का वही गीत गाते ।
जी हम स्कूल मे नैतिक शिक्षा पढ़ा सकते है ,अमल मे लाना व्यर्थ है। हर वर्ज़ना और वर्ज़ित को करना हमारा धर्म होता है । आज़ादी के बासठ साल के बाद भी हम व्यवस्थाओ मे कोई विशेष बद्लाव नहीं पाते है।साथ ही देश समाज ,व्यवस्था को कोसना ही हमारा धर्म , दायीत्व एवं प्रिय शगल है । कब तक हम अपनी लापरवाहीयो ,गलतीयो को सरकार ,प्रशासन ,नगर पालिकाओ पर थोपते रहेगें ।" सब चलता है " इस जुमले पर कब तक अमल करेगें ?आखिर कब तक?
बुधवार, 13 मई 2009
विमाता भी एक रुप है...........
ईश्वर की सर्वोत्तम कॄती माँ पर , मदर‘स डे के उपलक्ष्य में हजारो अभीव्यक्तियाँ लिखी गई ,पढ़ी गई ।जहाँ सुख है वहाँ दुख भी है।हर सिक्के के दो पहलू होते है ।जहाँ माँ है ,वही जिन की माँ इस दुनियाँ नहीं है, उन पर विमाता का साया है ।आपका ध्यान चाहूगाँ इस शब्द विशेष "विमाता " पर ।"विमाता " एक ऎसा शब्द जो धधकता रहता है,खुद अपनी आग तथा सौतेले बच्चो से डाह की आग में ।जहाँ माँ ईश्वरीय फ़रिश्ता है ; वहीं विमाता दण्डीत करने का माध्यम है विधी का। शायद पूर्व जन्म के बुरे कर्मो के दण्ड स्वरूप नियती से प्राप्त होती है विमाता । जैसे शब्द वितॄष्णा,विकॄती,विरक्ती,वैमनस्य ऎसे शब्दो के क्रम में खुद अपनी कहानी कहता शब्द है "विमाता " । जब हम बात करे विमाता की तो हमें समझना होगा शब्द वि + माता =विमाता ;विरक्त माँ उन बच्चो से जो उसके नही,उनमे विमाता की आसक्ती नहीं।सौतेली माँ ,दूसरी माँ ऎसे कैई शब्द प्रचलन में है विमाता के लिये । एक बात पर ध्यान दिलाना चहूँगा इस तरह के शब्दो में माँ जुड़ा होता है; जो शायद एक तरह से " माँ " का अपमान होता है ।"माँ " मधुर अनुभूति है तो विमाता प्रताड़ना है निश्चय ही। आप सभी सहमत नहीं होगें मेरी इस बात पर । कहा जाता है "जाके पैर न फ़टी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई "।जिन अभागो की "माँ " बचपन मे गुज़र जाती है वै ढ़ोते इस शब्द को अपनी आत्मा पर ।
सत युग में श्रीराम ने विमाता कैकेयी के कारण प्रताड़ना सही दण्ड्कारण्य में रह कर । ध्रुव ढ़केला गया पिता कि गोद से । धीवर पुत्री ने विमाता बनने से पुर्व देवव्रत को भीषण प्रतिग्या कराली वे इस तरह भीष्मपितामह हुए । सत युग से कलयुग तक यही कहानी दोहराई गई और दोहराती जाती रहेगी। फ़िल्म सरगम का वह द्रष्य सभी को याद होगा । गुँगी नायीका ,जो नॄत्य कर रही है;के पैरो पर जलती लकड़ी से मारती पैर जला देती है ,अंगारे बिछा देती है;यह माँ सौतेली है।अमर प्रेम फ़िल्म के छोटे बालक पर ज्यादतीयाँ करती ,अत्याचार करने वाली माँ , दूसरी माँ है।
जो स्त्री कोमलता ,कोमल भावनाओ का परिचायक होती है;वह इतनी क्रुर,क्रुरतम क्यो होजाती है।शायद काम्पलेक्स है;वह जो लड़की जो कुवाँरी है ,एक विवाहीत पुरुष जो एक दो सन्तती उत्पन्न कर चुका है ; के साथ जीवन को शेयर करना होता है । तथा पिछली पत्नि की बनी बनायी छवी को छीन्न भीन्न करना होता है।यही सब मनोविग्यान काम करता है ,दूसरी सोतेली माँ मे ।शादी के तोहफ़े के रूप में प्राप्त बच्चे ,विमाता को इसलीये भी नही भाते,क्योकी उसने उन बच्चो कि प्रसव पिड़ा को नहीं भोगा है । दर्द की सहभागीता नहीं तो कोई साहनूभुति नहीं। या शायद मरी सौत के डाह से तपते कलेजे पर सौतेले बच्चो के ममत्व की बुँद पड़ने से जैसे ;तड़कता है ठंडा प्याला ,वैसे ही चटक जाती है मामता ...खो जाता है ममत्व । प्राकट्य होता है विमाता का ।और उनके स्वयं माँ बनने के बाद अत्याचारो और प्रताड़नाओ के इपिसोड्स और बड़ते जाते है । शायद यह प्रकॄती भी है।जैसे प्रकॄती मे नर पशु , नरपशु को मारडालता है,वैसा ही कोई भय सताता है नीज सन्तती के लिये विमाता के मन में।साथ ही उसे अपने नीज बच्चो के पारिवारीक संपत्ती पर हक को ले कर भय होता है ,शंकाए होती है।तभी विमाताए वेम्प बन प्रथम पत्नि की संतत्ती को प्रताडित करने के तरीके ढ़ुडंती रहती है ।
वह पुरुष जिसने ब्याह किया है दुसरी बार , अपनी नई पत्नि के आगे मयूर नॄत्य के इलावा कुछ करने की चाह नहीं रखता ।उसकी दूसरी पत्नि का सच ही उसका सच होता है ।काम काफ़न्दा उसके भी गले है ।उसे पिछली नही आगे की सोचनी है।वह सोप चुका होता है अपना् मन मस्तीष्क पुर्ण रुपॆण अपनी नई पत्नि को ।शायद ही एसे लोग कभी इस तन्द्रा से जागे ।
अखबारो मे छपते रहे है छपते रहेगें ये किस्से -संपत्ती के लिये विमाता ने हत्या करवाई। लड़की को कोठे पर बेंचा । साथ ही घर के सारे काम करवाना ,भुखा रख्नना, मारना पिटना,जली कटी सुनाना ,जलाना,रस्सी से बांधना ऎसी बाते प्राय: पढ़ने सुअनने को आती है ।क्या यह मन गड़न्त होती है ?ना जहाँ धुआँ वहाँ ......आग! साहित्य भी प्रमाण है।
यह सच है की ,प्रसव मे ,दुर्घटनाओ मे ,कलह की परिणीती आत्महत्याओ मे विवाहित महिलाओ की मॄत्यु की एक दर सहज ही निश्चित है और उसी दर के आधार पर विमाताओ का एक बड़ाप्रतीशत भी ।
घरेलू आतंअकवाद का पर्याय ये विमाताए मातॄ विहीन बच्चो के,हक ,व्यक्तित्व ,खूबीयो,अच्छाईयो का हरण मर्दन कर उन्हे बोन्साई बनाने से बाज नहीं आती। इसके बाद भी तनाशाही हिटलरशाही के बल पर भुगतभोगी पिड़ीत बच्चो के मन पर निरंतर दरारे डालने ,चोट पहुचाने का क्रम जारी रहता है।
यहाँ मैं एक बात और बतलाना चाहूगाँ।विमाता का लेवल लगी कोई माँ सचमुच उन बच्चो से प्यार करती है;जो उसके नहीं है; तो हमारे समाज ,विधी ,ईश्वर के द्वारा लगाए गये ठप्पे से कई बार सच मे उसका ममत्व दब जाता है विमाता शब्द मे। शायद यह सबसे बड़ी विड्म्बना है विमाता शब्द की ।
जहाँ बहुत छोटे बच्चे होते है ,माता ,विमाता का भेद नहीं समझ पातेहै; मगर जो समझते हैऔर समझचुके है ,उनके लिये विमाता सात जन्मो तक भी " माँ " नहीं हो सकती ।यही शाश्वत सत्य है।
सत युग में श्रीराम ने विमाता कैकेयी के कारण प्रताड़ना सही दण्ड्कारण्य में रह कर । ध्रुव ढ़केला गया पिता कि गोद से । धीवर पुत्री ने विमाता बनने से पुर्व देवव्रत को भीषण प्रतिग्या कराली वे इस तरह भीष्मपितामह हुए । सत युग से कलयुग तक यही कहानी दोहराई गई और दोहराती जाती रहेगी। फ़िल्म सरगम का वह द्रष्य सभी को याद होगा । गुँगी नायीका ,जो नॄत्य कर रही है;के पैरो पर जलती लकड़ी से मारती पैर जला देती है ,अंगारे बिछा देती है;यह माँ सौतेली है।अमर प्रेम फ़िल्म के छोटे बालक पर ज्यादतीयाँ करती ,अत्याचार करने वाली माँ , दूसरी माँ है।
जो स्त्री कोमलता ,कोमल भावनाओ का परिचायक होती है;वह इतनी क्रुर,क्रुरतम क्यो होजाती है।शायद काम्पलेक्स है;वह जो लड़की जो कुवाँरी है ,एक विवाहीत पुरुष जो एक दो सन्तती उत्पन्न कर चुका है ; के साथ जीवन को शेयर करना होता है । तथा पिछली पत्नि की बनी बनायी छवी को छीन्न भीन्न करना होता है।यही सब मनोविग्यान काम करता है ,दूसरी सोतेली माँ मे ।शादी के तोहफ़े के रूप में प्राप्त बच्चे ,विमाता को इसलीये भी नही भाते,क्योकी उसने उन बच्चो कि प्रसव पिड़ा को नहीं भोगा है । दर्द की सहभागीता नहीं तो कोई साहनूभुति नहीं। या शायद मरी सौत के डाह से तपते कलेजे पर सौतेले बच्चो के ममत्व की बुँद पड़ने से जैसे ;तड़कता है ठंडा प्याला ,वैसे ही चटक जाती है मामता ...खो जाता है ममत्व । प्राकट्य होता है विमाता का ।और उनके स्वयं माँ बनने के बाद अत्याचारो और प्रताड़नाओ के इपिसोड्स और बड़ते जाते है । शायद यह प्रकॄती भी है।जैसे प्रकॄती मे नर पशु , नरपशु को मारडालता है,वैसा ही कोई भय सताता है नीज सन्तती के लिये विमाता के मन में।साथ ही उसे अपने नीज बच्चो के पारिवारीक संपत्ती पर हक को ले कर भय होता है ,शंकाए होती है।तभी विमाताए वेम्प बन प्रथम पत्नि की संतत्ती को प्रताडित करने के तरीके ढ़ुडंती रहती है ।
वह पुरुष जिसने ब्याह किया है दुसरी बार , अपनी नई पत्नि के आगे मयूर नॄत्य के इलावा कुछ करने की चाह नहीं रखता ।उसकी दूसरी पत्नि का सच ही उसका सच होता है ।काम काफ़न्दा उसके भी गले है ।उसे पिछली नही आगे की सोचनी है।वह सोप चुका होता है अपना् मन मस्तीष्क पुर्ण रुपॆण अपनी नई पत्नि को ।शायद ही एसे लोग कभी इस तन्द्रा से जागे ।
अखबारो मे छपते रहे है छपते रहेगें ये किस्से -संपत्ती के लिये विमाता ने हत्या करवाई। लड़की को कोठे पर बेंचा । साथ ही घर के सारे काम करवाना ,भुखा रख्नना, मारना पिटना,जली कटी सुनाना ,जलाना,रस्सी से बांधना ऎसी बाते प्राय: पढ़ने सुअनने को आती है ।क्या यह मन गड़न्त होती है ?ना जहाँ धुआँ वहाँ ......आग! साहित्य भी प्रमाण है।
यह सच है की ,प्रसव मे ,दुर्घटनाओ मे ,कलह की परिणीती आत्महत्याओ मे विवाहित महिलाओ की मॄत्यु की एक दर सहज ही निश्चित है और उसी दर के आधार पर विमाताओ का एक बड़ाप्रतीशत भी ।
घरेलू आतंअकवाद का पर्याय ये विमाताए मातॄ विहीन बच्चो के,हक ,व्यक्तित्व ,खूबीयो,अच्छाईयो का हरण मर्दन कर उन्हे बोन्साई बनाने से बाज नहीं आती। इसके बाद भी तनाशाही हिटलरशाही के बल पर भुगतभोगी पिड़ीत बच्चो के मन पर निरंतर दरारे डालने ,चोट पहुचाने का क्रम जारी रहता है।
यहाँ मैं एक बात और बतलाना चाहूगाँ।विमाता का लेवल लगी कोई माँ सचमुच उन बच्चो से प्यार करती है;जो उसके नहीं है; तो हमारे समाज ,विधी ,ईश्वर के द्वारा लगाए गये ठप्पे से कई बार सच मे उसका ममत्व दब जाता है विमाता शब्द मे। शायद यह सबसे बड़ी विड्म्बना है विमाता शब्द की ।
जहाँ बहुत छोटे बच्चे होते है ,माता ,विमाता का भेद नहीं समझ पातेहै; मगर जो समझते हैऔर समझचुके है ,उनके लिये विमाता सात जन्मो तक भी " माँ " नहीं हो सकती ।यही शाश्वत सत्य है।
शनिवार, 9 मई 2009
"माँ"-हर दिन तेरा........
" माँ " यह एक सिर्फ़ शब्द नहीं। "माँ" स्पदंन है ह्रदय का । माँ की धड़कन ,बच्चे की धड़कन नौ माह तक एक ही होती है । जब जनमता है शिशु , विलग किया जाता है दोनो को । नाल काट दी जाती है, मगर फ़िर भी जीवन पर्यन्त वह जुड़ाव होता जो कभी अलग नहीं किया जासकता है ।
जब भी "माँ" शब्द उच्चारीत होता है , शब्द के अनुस्वार से साँसो में जो अनुनाद उत्पन्न होता है;पुलकित कर देता है ,मन को, रोम रोम को । माँ वीणापाणी ने वीणा के तारो को झनकृत कीया हो एसा मधुर शब्द है" माँ "।
जब मालिक ने इन्सान को बनाया और उसे दुनियाँ में भेज ने को तत्पर हुआ तो फ़रिश्तो ने पूछा इसे अकेले ही दुनियाँ में भेजोगें। मालीक ने कहा नहीं, फ़रिश्ते के साथ । फ़रिश्तो ने पूछा-"कौन होगा वह फ़रिश्ता ,जो इस के साथ जाऎगा"? जवाब मिला ......."माँ"!
धरा की विशालता और देने काभाव है,"माँ"।शायद इसी लिये नदीयों को भी हम माँ कह के बुलाते है।जो पालती रही अपने किनारो पर सभ्यताओ को ।
शब्दो में नहीं व्यक्त की जा सकती है अनूभुति । गीतकारो ने ,कवियो ने ,शायरो ने "माँ " क्या है इसे व्यक्त करने की पूरजोर कोशीश की है ;पर फ़िर भी सभी आयामो को व्यक्त नहीं कर सके ।"माँ" उससे भी कही आगे है । मगर फ़िर भी वो गीत ,कविता ,नज़्मे,शेर अच्छे लगते है ; जिनमे माँ को चित्रीत किया गया हो ।जैसे माँ भाती हर एक को, वैसे ही भाते वो गीत ,वो नज़्मे ,वो शेर जिस में "माँ"शब्द है।
सारी दुनिया माँ के आँचल मे सीमट आती है।जब सारी दुनियाँ बैगानी हो जाती है ; तो अपनी होती सिर्फ़ "माँ"। बचपन को सहेजती ,किशोरावस्था को प्रवाह देती ,युवा वस्था में दिल की हर बात को समझती है सिर्फ़ "माँ"।इस "माँ" से मीठा और फ़लदायक कोई शब्द दुनियाँ में नही ।
"माँ" कि सत्ता और महत्ता को मनुष्य ने अनादि काल से जाना और पूजा है ।सनातन धर्म में "माँ"के सभी रूपो ,आयामो को पूजा है । दुर्गा सप्तशती प्रमाण है ।"या देवी सर्व भूतेषु मातॄ रुपेण संस्थीता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम :"। यही माँ का रूप,असंभव को संभव करता।अपने बालको का रक्षण करता ।मदर मेरी भी इससे अलग नही ।
"माँ"खुद गीले में सो कर बच्चे को सुखे मे सुलाती । खुद न सोती ,बच्चे कि निन्द न हो तो चिन्तीत हो जाती । तभी तो मन कहता ’ मेरी दुनियाँ है माँ तेरे आँचल में ’ ।माँ का आँचल सारा आकाश ओढ़े सा लगता है ,जब छुप जाते है माँ के आँचल में।
मनुष्य का मनोबल है माँ, आत्मा का संबल है माँ ।
नीड़ मे चिड़िया के पंखो के नीचे बैठे चूज़ो ने पुछा "माँ आकाश कितना बड़ा है "?
"तुम्हारे पंखो से छोटा " माँ ने कहा । यही मनोबल देती है माँ ।
मनुष्य क्या भगवान को भी भाया माँ का स्वरूप ,माँ का आँचल तभी तो लिया राम , कॄष्ण का अवतार ।
"कुपुत्रो जायते क्वचिदपी कुमाता न भवती" इस पंक्तिमें पूरा दर्शन छुपा है। पुत्र कुपुत्र हो सकते है पर माता कभी कुमाता नहीं होती।इस धरा पर शायद ही कोई ऎसा मनुष्य या जीव होगा ,जो माँ की सत्ता को नकार सके ।
मदर्स डे तो केवल व्यक्त करने का तरीका है। हर दिन माँ को समर्पित रहे , हर दिन मदर्स डे । शायद यही सब है ,जो कभी नवरात्री मनाने वाले को,मदर्स डे मनाने से नहीं रोकाता ।
और अन्त में "माँ" से कभी ना बिछड़े कोई जीव धरा पर।"माँ"के विछोह मे कोई आँख की कोर ना भीगे ;यही हम दुआ करे।
"वो कौन सी चीज़ है , जो यहाँ नहीं मिलती . सब कुछ मिल जाता है, लेकीन माँ नहीं मिलती"।
जब भी "माँ" शब्द उच्चारीत होता है , शब्द के अनुस्वार से साँसो में जो अनुनाद उत्पन्न होता है;पुलकित कर देता है ,मन को, रोम रोम को । माँ वीणापाणी ने वीणा के तारो को झनकृत कीया हो एसा मधुर शब्द है" माँ "।
जब मालिक ने इन्सान को बनाया और उसे दुनियाँ में भेज ने को तत्पर हुआ तो फ़रिश्तो ने पूछा इसे अकेले ही दुनियाँ में भेजोगें। मालीक ने कहा नहीं, फ़रिश्ते के साथ । फ़रिश्तो ने पूछा-"कौन होगा वह फ़रिश्ता ,जो इस के साथ जाऎगा"? जवाब मिला ......."माँ"!
धरा की विशालता और देने काभाव है,"माँ"।शायद इसी लिये नदीयों को भी हम माँ कह के बुलाते है।जो पालती रही अपने किनारो पर सभ्यताओ को ।
शब्दो में नहीं व्यक्त की जा सकती है अनूभुति । गीतकारो ने ,कवियो ने ,शायरो ने "माँ " क्या है इसे व्यक्त करने की पूरजोर कोशीश की है ;पर फ़िर भी सभी आयामो को व्यक्त नहीं कर सके ।"माँ" उससे भी कही आगे है । मगर फ़िर भी वो गीत ,कविता ,नज़्मे,शेर अच्छे लगते है ; जिनमे माँ को चित्रीत किया गया हो ।जैसे माँ भाती हर एक को, वैसे ही भाते वो गीत ,वो नज़्मे ,वो शेर जिस में "माँ"शब्द है।
सारी दुनिया माँ के आँचल मे सीमट आती है।जब सारी दुनियाँ बैगानी हो जाती है ; तो अपनी होती सिर्फ़ "माँ"। बचपन को सहेजती ,किशोरावस्था को प्रवाह देती ,युवा वस्था में दिल की हर बात को समझती है सिर्फ़ "माँ"।इस "माँ" से मीठा और फ़लदायक कोई शब्द दुनियाँ में नही ।
"माँ" कि सत्ता और महत्ता को मनुष्य ने अनादि काल से जाना और पूजा है ।सनातन धर्म में "माँ"के सभी रूपो ,आयामो को पूजा है । दुर्गा सप्तशती प्रमाण है ।"या देवी सर्व भूतेषु मातॄ रुपेण संस्थीता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम :"। यही माँ का रूप,असंभव को संभव करता।अपने बालको का रक्षण करता ।मदर मेरी भी इससे अलग नही ।
"माँ"खुद गीले में सो कर बच्चे को सुखे मे सुलाती । खुद न सोती ,बच्चे कि निन्द न हो तो चिन्तीत हो जाती । तभी तो मन कहता ’ मेरी दुनियाँ है माँ तेरे आँचल में ’ ।माँ का आँचल सारा आकाश ओढ़े सा लगता है ,जब छुप जाते है माँ के आँचल में।
मनुष्य का मनोबल है माँ, आत्मा का संबल है माँ ।
नीड़ मे चिड़िया के पंखो के नीचे बैठे चूज़ो ने पुछा "माँ आकाश कितना बड़ा है "?
"तुम्हारे पंखो से छोटा " माँ ने कहा । यही मनोबल देती है माँ ।
मनुष्य क्या भगवान को भी भाया माँ का स्वरूप ,माँ का आँचल तभी तो लिया राम , कॄष्ण का अवतार ।
"कुपुत्रो जायते क्वचिदपी कुमाता न भवती" इस पंक्तिमें पूरा दर्शन छुपा है। पुत्र कुपुत्र हो सकते है पर माता कभी कुमाता नहीं होती।इस धरा पर शायद ही कोई ऎसा मनुष्य या जीव होगा ,जो माँ की सत्ता को नकार सके ।
मदर्स डे तो केवल व्यक्त करने का तरीका है। हर दिन माँ को समर्पित रहे , हर दिन मदर्स डे । शायद यही सब है ,जो कभी नवरात्री मनाने वाले को,मदर्स डे मनाने से नहीं रोकाता ।
और अन्त में "माँ" से कभी ना बिछड़े कोई जीव धरा पर।"माँ"के विछोह मे कोई आँख की कोर ना भीगे ;यही हम दुआ करे।
"वो कौन सी चीज़ है , जो यहाँ नहीं मिलती . सब कुछ मिल जाता है, लेकीन माँ नहीं मिलती"।
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